Monday 10 June 2013

'बड़े' होने का दर्शन बनाम मनोविज्ञान बनाम हवस...


वो दोनों बस इससे पहले एक ही बार मिले थे। और उस वक्त दोनों ने ही एक-दूसरे को ज्यादा तवज्ज़ो नहीं दी थी। इस बार भी दोनों मिले तो लेकिन गर्माहट-सी नहीं थी। शायद दोनों को पिछली मुलाक़ात याद भी नहीं आई। वो दुराव भी याद नहीं था। इस बार मिले तब भी दोनों ही तरफ हल्की-हल्की झेंप थी... नए को लेकर संकोच था। लेकिन हमउम्र थे, इसलिए ये संकोच, झेंप और ठंडापन ज्यादा देऱ ठहर नहीं पाया और दोस्ती हो गई। बचपन किसी भी ‘कल’ को लाद कर नहीं चलता है, उसके लिए हर दिन पहला दिन होता है, शायद इसीलिए वो बेफिक्र होता है...। बड़ों की बातचीत से दोनों ने एक तथ्य जाना कि कनु उम्र में नॉडी से बड़ा है। नॉडी ने उस तथ्य को हवा में उड़ा दिया... क्योंकि उसे ‘छोटा’ होना मंज़ूर नहीं था और कनु ने उसे तुरंत लपक लिया, क्योंकि उसे बहुत दिनों बाद ‘बड़ा’ होने का मौका हासिल हुआ। थोड़ी देर झेंप के खेल के बाद दोनों ने एक-दूसरे से दोस्ती कर ली और साथ खेलने लगे। अब दो हमउम्र बच्चे साथ खेलेंगे तो झगड़ेंगे भी... तो थोड़ी ही देर बाद दोनों के बीच झगड़ा भी हो गया... वज़ह थी बड़ा होना...। कनु ने तो अपनी पसंद का सच लपक लिया था कि वो बड़ा है, लेकिन नॉडी उस सच से बचना चाह रहा था, क्योंकि वो भी बड़ा होना चाह रहा था। खैर... बच्चों के झगड़े क्या? अभी झगड़े और बिना किसी प्रयास के दोस्ती भी हो गई... क्योंकि वही... उनके ज़हन में कोई ‘कल’ नहीं ठहरता है।
दोनों के झगड़े की वजह सुनकर सारे ‘बड़े’ हँसे... हँसने की बात ही थी, अब ये कोई बात है कि कौन बड़ा है, इसे लेकर झगड़ा हो... अब भई जो बड़ा है वो बड़ा है और जो छोटा है, वो छोटा है... लेकिन क्या सचमुच हँसने की ही बात थी? सोचने की नहीं... कि क्यों बच्चा, ‘बड़े’ होने का अर्थ जाने बिना ‘बड़ा’ हो जाना चाहता है! जबकि जो बड़े हो गए हैं, वो अपना बचपन याद करते हुए आँहे भरते हैं कि वो दिन भी क्या दिन थे...? कम-अस-कम ये ऐसा तो कतई नहीं है कि जो गुज़र गया है, वो ही खूबसूरत है। फिर क्या वाकई हम बड़े हक़ीक़त में छोटे होना चाहते हैं, जबकि सारी लड़ाई तो हर स्तर पर ‘बड़े’ हो जाने की है। बच्चा बड़ा होना चाहता है, क्योंकि उसे लगता है कि बड़े होने में सत्ता है, जीत है, अधिकार, स्वतंत्रता है। हर ‘छोटा’ बड़ा हो जाना चाहता है, हर लघु विराट् हो जाना चाहता है... और सारा जीवन उसी जद्दोज़हद का हिस्सा बन जाता है। ये बच्चों का भी सच है और बड़ों का भी... बच्चों का सच तो वक्ती है, लेकिन बड़ों का सार्वकालिक, सार्वत्रिक, सार्वभौमिक है।
हम उम्र के तथ्य को जानते हैं तो ओहदे में, प्रभाव में, बल में, अर्थ में, बुद्धि में..., बड़े होना चाहते हैं, और यदि नहीं हो पाते हैं तो किसी ‘बड़े’ के बड़प्पन के छाते के नीचे आ जाना चाहते हैं, क्योंकि जो मनोविज्ञान बच्चे लघु रूप में समझते हैं, हम उसके विराट् रूप को समझ चुके होते हैं। हम प्रभावित करना चाहते हैं, अधिकार चाहते हैं, सत्ता और शासन चाहते हैं और इन्हीं चीजों के लिए हम ‘बड़े’ होना चाहते हैं, ऐसे नहीं तो वैसे... किसी भी तरह से। शायद सारा स्थूल विश्व ‘बड़े’ हो जाने की..., ‘विराट्’ हो जाने की ख़्वाहिश से संचालित होता है। इसी से प्रकृति में गति है, इसी में विकार भी। सिर्फ इंसान ही क्यों प्रकृति भी तो लघु से विराट का रूप ग्रहण करती है। एक पतली-सी धारा नदी में और नदी समुद्र में परिवर्तित होती है, बीज, पौधे में और पौधा पेड़ में बदलता है। कली, फूल में और फूल फल में बदलता है। वीर्य, भ्रूण में और भ्रूण शिशु में बदलता है। बच्चा, किशोर होकर वयस्क और फिर जवान होता है। गोयाकि ‘बड़ा’ हो जाना मात्र ख़्वाहिश ही नहीं, लक्ष्य भी है। या फिर बड़ा होना नियति... क्योंकि ‘विराट्’ विकार भी है और विनाश भी... ।

3 comments:

  1. विराट विकार भी है और विनाश भी। बडा होना और फिर नष्ट होना हमारी नियती है। विराट से भय भी स्वाभाविक है जैसे अर्जुन को हुआ।
    बहुत सुंदर और लग सा आलेख।

    ReplyDelete
  2. लग की जगह कृपया अलग पढें।

    ReplyDelete
  3. कितना अच्छा लिखा है आपने।
    बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |सादर मदन

    http://madan-saxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena.blogspot.in/
    http://madanmohansaxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena69.blogspot.in/

    ReplyDelete