Sunday 13 May 2012

.... यहाँ सबके सर पे सलीब है


एक संघर्ष चल रहा है या फिर ... ये चलता ही रहता है, लगातार हम सबके भीतर... मेरे-आपके। इसका कोई सिद्धांत नहीं, कोई असहमति नहीं, कोई समर्थक नहीं, कोई विरोधी नहीं। कोई दोस्त नहीं, कोई दुश्मन भी नहीं। मेरे औऱ मेरे होने के बीच या फिर मेरे चाहने और न कर पाने के बीच। अपने आदर्श और अपने यथार्थ के बीच, बस संघर्ष है, सतत, निःशब्द, गहरा, त्रासद... न जाने कितने युगों से चलता है, चल रहा है, चलेगा। न इसमें कभी कोई जीतेगा और न ही कोई हारेगा। ये युद्ध भी नहीं है, जिसका परिणाम हो, ये बस संघर्ष है, बेवजह, बेसबब, लक्ष्यहीन, इसीलिए इससे निजात नहीं है। ये संघर्ष है आदिम और सभ्य मान्यताओं के बीच, ख्वाहिशों और मर्यादाओं के बीच...। हर मोड़ पर खड़ा होता है, हर वक्त एक चुनौती है, हर वक्त इस संघर्ष से बचा ले जाने का संघर्ष है। यूँ ही-सा एक विचार आता है – ‘हम वस्तु हो जाने के लिए ... एक विशिष्ट ढाँचे में ढ़लने के लिए अभिशप्त है।’ सार्त्र जागते हैं, लेकिन कोई हल वो भी नहीं दे पाते हैं। पता नहीं क्यों लगता तो ये है कि ये संघर्ष हरेक का नसीब है, लेकिन कोई इस तरह लड़ता, लहूलुहान होता नजर नहीं आता...! तो क्या मैं आती हूँ?
क्या कोई ये जान पाता है, कोई कभी ये जान पाएगा कि लगातार हँसते-मुस्कुराते, सँवरते-चमकते से मानवीय ढाँचे के भीतर कोई संग्राम लड़ा जा रहा है, अनंत काल से और लड़ा जाता रहेगा अनंत काल तक...। आप चाहें तो कह सकते हैं, हवा में तलवार घुमाने जैसा कोई जुमला, लेकिन यहाँ तलवार भी कहाँ है। बस एक रणक्षेत्र है और दोनों ओर लहूलुहान होती ईकाईयाँ... भौतिक नहीं है, दिखायी नहीं देती, इसलिए न सहानुभूति है और न ही करूणा। बस अनुभूत होती है, उसे ही जिसके भीतर ये लड़ा जा रहा है। चाहे कोई कितना भी अपना हो, उस पीड़ा तक नहीं पहुँच पाता जो होती है, जो साक्षात टीसती है, रिसती है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि दुख को समझना अलग बात है और दुख को महसूस करना अलग। मेरा दुख मेरा और तुम्हारा दुख, तुम्हारा है। तुम्हारे और मेरे दुख के बीच कोई संवाद नहीं है, कोई पगडंडी नहीं है, कोई सेतु, कोई सिरा नहीं है। तुम्हें मेरे दुख और उससे उत्पन्न दर्द का अंदाजा नहीं हो सकता है, ठीक वैसे ही तुम्हारी पीड़ा की कोई बूँद मुझ तक पहुँच नहीं पाती।
कोई किसी के रण का भागीदार हो भी कैसे सकता है, कोई भी एक वक्त में दो-दो संघर्ष का हिस्सेदार कैसे हो सकता है... उम्मीद भी क्यों हो – मैं किसे कहूँ मेरे साथ चल/ यहाँ सबके सर पे सलीब है।
.... और हरेक को अपनी-अपनी सलीब खुद ही ढोनी पड़ती है :-c

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