Saturday 28 April 2012

यादों के फूल...

तू समझती क्यों नहीं, पूरी दुनिया से लड़ता-भिड़ता रहता हूँ, बस तेरे ही सामने घुटनों के बल होता हूँ। - आखिरकार उसने बहुत हताशा में भर कर लड़की से कहा था। लड़की ने उसके सिर पर हाथ घुमा कर उसके बालों को बिखेर दिया और मुस्कुरा दी। वो जानती तो है, लेकिन मानती नहीं है। लड़की को उसका तू कहना बहुत भाता है, उसे लगता है जैसे वो उस लड़के का ही विस्तार है... जब कभी लड़का गुस्से में उसे तुम कहता है तो उसे लगता है कि लड़के ने उसे काट दिया है खुद से...।
लड़की बिना वजह लड़ती रहती है... ये लड़के को लगता है, लेकिन लड़की को लगता है कि हमेशा वही वजह होता है झगड़े की... वो तो कितनी लीस्ट डिमांडिग है... उसकी तो कोई डिमांड ही नहीं है। बस हर वक्त मुस्कुराते रहो इतना ही तो चाहती है, लेकिन लड़का हर वक्त झगड़ता है, कभी कुछ तो कभी कुछ। फिर जब उसे गुस्सा आता है तो वो इतना कुछ कहता है कि लड़की एकदम चुप हो जाती है। दोनों दो सिरों पर हैं एक बेहद गुस्सैल और दूसरी बेहद संवेदनशील...। बस हर दिन एक डर के साथ शुरू होता है, पता नहीं आज किस बात पर झगड़ेंगे दोनों... झगड़ते हैं, लेकिन रहते भी साथ ही हैं।
लड़का कहता है तुम्हारे साथ मैं हर जगह यादों के बीज डाल देना चाहता हूँ। जब कभी हम या फिर तुम मेरे बिना इन जगहों पर आओ तो तुम्हें यादों के फूल खिले हुए नजर आए, तभी तो लायब्रेरी की सीढ़ियों पर हग करता है और फ्लैट की लिफ्ट को बीच में रोककर स्मूच...। दोस्तों के बीच आँखें बचाकर कमर में चिकोटी काट देता है तो मम्मी-पापा के सामने दुस्साहस करते हुए आय लव यू कह जाता है। कैंपस में पगडंडियों पर उसे उठा लेता है... कभी कैंटीन में गिरे उसके रूमाल को चूम लेता है तो कभी उसके छोड़े कॉफी मग को उसी तरफ से सिप करता है, जहाँ से लड़की ने किया था।
वो लड़की से बार-बार पूछता है ‘शादी करेगी मुझसे!’ और लड़की हर बार मुस्कुरा देती है। एक रात लड़की को ये सपना आता है कि वो उससे बहुत डरते हुए पूछ रही है ‘शादी करेगा मुझसे!’ सपना सुनकर लड़का बहुत देर तक खिलखिलाता है और फिर उसे बाँहों में लेकर चूम लेता है।

आज पता नहीं लड़के को कैसा फील हो रहा है, लड़की की रिसर्च की एप्लीकेशन मंजूर हो गई है और उसे रिसर्च के लिए यूके जाना है। लड़का उदास भी है और खुश भी। वो जानता है कि लड़की कुछ करना चाहती है, लेकिन वो ये नहीं जान पाता है कि लड़की गहरी दुविधा में है। वो लड़के से कहती है, - मैं सोचती हूँ कि रिसर्च का विचार ही मुझे छोड़ देना चाहिए। लेकिन लड़का जानता है, उसके सपने हैं, महत्वाकांक्षा है। लड़का कहता है उससे – ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ तुम्हारे जीवन में हर्डल नहीं बनूँगा, तुम्हारे जीवन का आकाश बना रहूँगा..., जिसमें तुम्हें उड़ने की पूरी सुविधा होगी।’
लड़की चिढ़ाती है – ‘यदि भटक गई तो...!’
लड़का कहता है – ‘भटक कर कहाँ जाओगी... अपने आकाश में ही रहोगी।’
लड़की की आँखें भर आती है। वो तय करती है कि अपने आकाश को निराश नहीं करेगी, उड़ती रहेगी उसमें ही ताउम्र। देर रात तक दोनों सेलिब्रेट करते हैं और पार्टी मनाते हैं, लड़की कहती है उसे थोड़ी-सी ‘पीनी’ है। लड़का हँसता है, ठीक है आज तू पी... मैं तुझे संभालूँगा। वो नहीं पीता, इसलिए नहीं कि वो पीने के बाद लड़की को नहीं संभाल सकता है, बल्कि इसलिए कि पीने के बाद लड़की के सामने भावुक न हो जाए।

लड़की के जाने के दिन जैसे-जैसे करीब आ रहे थे, लड़के की उदासी बढ़ने लग गई थी। जाने के एक दिन पहले लड़की उससे मिलना चाहती थी, उसे हग करना चाहती थी। दिन भर वो उसे फोन लगाती रही मैसेज करती रही लेकिन लड़के का फोन या तो बंद मिला या फिर उसने उठाया ही नहीं। उसने लड़की के मैसेज का भी जवाब नहीं दिया। लड़की दिन भर रूआँसी-रूआँसी रही। उसकी यादों की संदूक पर उपेक्षा का ताला मुँह चिढ़ाता रहा। उसे एक भयानक खयाल आया – ‘ये प्लेन क्रेश हो जाए और वो मर जाए तो उसे ये जरूर महसूस होगा कि जाने वाले की ऐसी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।’
फिर खुद ही शर्मिंदा हुई, कि ये वो क्या सोच रही है!

Wednesday 25 April 2012

यादों की रहगुज़र, रहगुज़र-सी यादें

साल भर में यही कुछ दिन हुआ करते हैं, जब वो खुद हो जाती है... वरना तो अंदर से बाहर की तरफ तनी रस्सी पर नट-करतब करते हुए ही दिन और जिंदगी गुजर रही होती है। कभी संतुलन बिगड़ जाता है, गिरती है, दर्द-तंज सहती है, असफल होती है और फिर उठकर करतब दिखाने लगती है। कभी-कभी सोचती है, क्या सबको यही करना होता है। क्या अंदर-बाहर के बीच हरेक के जीवन में इतनी ही दूरी हुआ करती है? हरेक को उसे इसी तरह पाटना होता है...? या ये उसी का अज़ाब है...! उसे अक्सर लगता है कि खुद को ही अच्छे से नहीं जाना जा सकता है तो हम दूसरों को कैसे जान सकते हैं? और कैसे, किसी के प्रति जजमेंटल हो जाया करते हैं? आखिर हम किसी की मानसिक और भावनात्मक बुनावट को कितना जानते है? इंसान तो अपने परिवेश में ही घड़ा जाता है ना...! हम उसकी जरूरत और परिवेश पर विचार किए बिना ही, उसे सही-गलत कैसे ठहरा सकते हैं...?
दो स्तरों पर लगातार विचार चल रहे थे... पता नहीं कमरा कैसा होगा? इंटरनेट पर बुकिंग करवाने पर यही होता है... गाड़ी ने बाहर छोड़ दिया था... कुली ने जब लगेज उठाया तो असीम ने उसे पहियों पर खींचने के लिए हैंडल खोलकर दे दिया...। चढ़ाव पर लगेज की गड़घड़ की तेज आवाज के बीच सारे विचार अटक गए। जैसे ही लगेज की गड़घड़ आवाज रूकी, गहरी शांति फैल गई...। जब कमरे में पहुँचे तो पूर्व की तरफ खुलती बड़ी-सी खिड़की से धूप की रोशनी में धुँधलाते पहाड़ नजर आए... सारी कुशंकाएँ भी धुँधला गई। अटेंडर ने पानी रखा, असीम ने चाय लाने के लिए कहा तो वो चला गया। असीम ने सूटकेस खोलकर कपड़े निकाले और बाथरूम चला गया। वो कमरे में अकेली हो गई। तेज साँस खींची... जैसे उस शांति को भीतर भर लेना चाहती हो। खिड़की के पास रखी कुर्सी पर जाकर बैठ गई। इतनी शांति पता नहीं कितने सालों से नहीं मिली उसे... जब बाहर सबकुछ शांत होता है, तब भीतर अशांति चलती है, बाहर-भीतर शांति हो... ये कभी-कभी ही तो होता है।
इस बार फिर से घूमने के लिए मसूरी इसलिए ही तो चुना है, कि घूमने की हवस ना हो... यहाँ का चप्पा-चप्पा देखा हुआ है। पिछली बार आए थे, तब भी लगभग हफ्ते भर यहाँ रहे थे, इस बार भी इतना ही लंबा टूर है। शांति से रहने, पढ़ने, महसूस करने और खुद से संवाद करने का लक्ष्य लेकर ही तो दोनों यहाँ आए हैं। और उसके लिए इससे बेहतर और कौन-सी जगह होगी...।
चाय बनाने, खाना-नाश्ता, लांड्रीवाला, माली, सब्जीवाला, मैकेनिक, बाथरूम का टपकता नल, बदरंग हुए जा रहे पर्दे... गर्द जमी हुई टेबल और अस्त-व्यस्त किताबों को व्यवस्थित करने का अटका पड़ा काम... म्यूजिक सिस्टम को ठीक करवाना और इंटरनेट कनेक्शन का बंद हो जाना... बूटिक से कपड़े उठाना और गाड़ी में फ्यूज डलवाने जैसे सारे रूटीन से भरकर ही तो यहाँ आए हैं। अपनी दुनिया न हो तो दुनियादारी भी वैसी नहीं होती है। सोचा तो था कि बस दिन भर कमरे में ही रहेंगे... लेकिन पहले दिन उसे साध नहीं पाए...। लगा कि पहले उस सबको रिकलेक्ट कर लिया जाए जो पिछली बार यहाँ छूट गया था। दिन भर दोनों उन निशानों को इकट्ठा करने में लगे रहे जो पिछली बार जगह-जगह छोड़े थे, छूट गए थे। यहाँ कॉफी पिया करते थे, और यहाँ से सॉफ्टी लिया करते थे...। यहाँ की फोटो है और यहाँ के एकांत में... तुम्हें पता है... यहाँ पहले कुछ दुकानें हुआ करती थी। हाँ और ये एंटीक की दुकान... तब भी वैसी ही थी... जरा भी नहीं बदली। और यहाँ से आडू खरीदा करते थे, याद है हमने पहली बार जाना था कि असल में आडू का स्वाद कैसा होता है! मैदानों में हम तक जो पहुँचते हैं, वो तो बस फल ही है... स्वाद तो यहाँ के आडुओं में हुआ करता है। और लीची का शर्बत... कितनी खूबसूरत बॉटल में मिलता था! यहाँ तुम थककर रो पड़ी थी और यहाँ हमने झगड़ा किया था...। और फिर मनाने के लिए चॉकलेट खरीदी थी यहाँ से... । यहाँ मेंहदी बनवाई थी... कितनी स्मृतियाँ हैं यहाँ हर जगह बिखरी हुई...। उसे लगा कि ये भी रिलेक्स होने का एक तरीका है।
देर रात जब थककर कमरे पर पहुँचे थे तो जैसे 10 साल पुरानी स्मृतियों को जिंदाकर लौटे थे। ठंड बढ़ गई थी, मोटे ब्लैंकेट और फिर उस पर रजाई... इतना वजन कि सारे बदन को आराम महसूस होने लगा। आखिर दिन भर चल-चलकर ही तो बीते हुए दिनों को इकट्ठा किया था। असीम तो थककर सो गए थे, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। अँधेरा और शांति... शांति इतनी कि उससे सन्नाटे को दहशत होने लगे... स्मृतियों से ध्वनियाँ चुन-चुनकर लाता रहा मन... ना तो कुत्तों के भौंकने की आवाज थी और ना ही झींगुर की... इतनी गाढ़ी शांति में उसे साँस लेना भी गुनाह लग रहा था, यूँ लग रहा था जैसे ये जादू, जिसके लिए वो लगातार तरसती रही है टूट जाएगा, भंग हो जाएगा...। उसी जादू में उसे नींद आ गई। असीम की बड़बड़ से उसकी नींद खुली थी – यार इतनी रात लाईट जलाकर क्या कर रही हो...?
उसने आँखें खोली तो खिड़की से तेज रोशनी आ रही थी... – जरा उठकर देखो, खुद सूरज तुम्हारे कमरे में आकर जल रहा है...। – उसने असीम को गुदगुदाकर कहा।
ओह... क्या टाईम हुआ होगा...! – कहकर असीम ने टेबल पर से घड़ी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उसने असीम का हाथ खींच लिया। - सूरज निकल आया है... क्या ये कम है!
पता है, इस कमरे में इस बड़ी-सी खिड़की के अलावा और सबसे खूबसूरत क्या है...?
खुद कमरा...
ऊँ हू... इसमें घड़ी नहीं है...। – खुलकर हँसी थी वो... असीम लपका था, उसकी तरफ। वो जानता था कि उसने ये क्यों कहा था।

छोड़ दो सब... मोबाइल, घड़ी, लैपटॉप, दिन-रात का खयाल... बस घुलने ही आए हैं, हम यहाँ... - हवाघर की बेंच पर बैठी थी... भुट्टा खाते हुए... - और हाँ महँगा-सस्ता भी... – और शरारत से मुस्कुराई थी।

कभी खुद की बुद्धि को विश्राम देकर, दूसरों की नीयत पर भी विश्वास किया करो... दुनिया का हर आदमी घात लगाकर तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है।

हर वक्त खुद को लादे हुए घूमती हो, थक नहीं जाती हो...! मुक्त करो खुद को... आजाद हो जाओ... किसी दिन बुद्धिमान और खूबसूरत नहीं लगोगी तो आसमान टूटकर गिर नहीं जाएगा...।
हाहाहा... आसमान तो है ही नहीं... टूटकर गिरेगा क्या खाक...!
है कैसे नहीं... सिर उठाकर देखो, तुम्हारे दुपट्टे के रंग का है... । –असीम ने दुपट्टे के कोने को अपनी ऊँगलियों में लपेट लिया था।
ये मैंने नहीं कहा है, तुम्हारा साईंस ही कहता है।
तुम्हें क्या दिखता है? जरा आसमान की तरफ सिर उठाकर देखो... साईंस को छोड़ो
मुझे दिखता है आसमान, मेरे दुपट्टे के रंग का... जिस पर बादल है, तुम्हारी शर्ट के रंग के...
तो बस... वो है... पता है तथ्य जीवन को जटिल बना देते हैं...।
तथ्य या फिर सत्य...!
नहीं... तथ्य... सत्य तो कुछ है ही नहीं।

दिन-पर-दिन गुजर गए... सुबह, दोपहर, शाम और रात... दुनिया और दुनियादारी से दूर... भटकाव, अपेक्षा, उलझन, दबाव और तमाम जद्दोजहद से दूर पंछी की तरह उन्मुक्त दिन उड़ गए, हवा हो गए। अब... अब लौटना है... कोई भी वक्त चाहे अच्छा हो या बुरा, लंबा टिक जाता है तो रूटीन हो जाता है। घर लौटने की कल्पना भी उत्साह भर रही थी। हरिद्वार से ही रिजर्वेशन है... एक दिन पहले ही दोपहर वहाँ पहुँच गए थे।
बहती हुई गंगा को छुए बिना कैसे लौटा जा सकता है!
बहती नदी जादू होती है
बहाकर लाती है ना जाने क्या-क्या
ले जाती है ना जाने क्या-क्या
माना कि बहना ही जीवन है
लेकिन
नदी-सा बहना
खुशी भी है और
त्रास भी...
क्योंकि बहना चुनाव हो तो
ठीक
अगर मजबूरी हो तो...?

तो... तो... त्रास, देखो गंगा को, लोग अपनी आस्था के जुनून में क्या-क्या बहाते जा रहे हैं। संध्या-आरती का समय था, हर की पौड़ी पर आरती के लिए मजमा इकट्ठा था। बाकी घाटों पर लोग एक दोने में फूल और दीया लेकर गंगा में प्रवाहित कर रहे थे... क्या ये सारा कूड़ा नहीं है?
असीम ने आँखों से डपटा था – तुम आस्था पर सवाल कर रही हो...!
मैं सिर्फ जानना चाह रही हूँ।
हाँ ये भी कूड़ा है। - असीम ने गंगा के ठंडे पानी में पैर डालते हुए कहा था
तो क्या किसी को ये जरा भी खयाल नहीं आता है कि कितना साफ पानी बह रहा है और उसमें ये कूड़ा क्यों बहाया जा रहा है? क्या सरकारें भी नहीं सोचती...! – गहरी वितृष्णा से भरकर उसने कहा था।
तुम फिर से तर्क पर आ रही हो...
ये तर्क है...? ये आस्था है, सौंदर्य-बोध है... छोड़ों।

दोनों अलग-अलग किनारों पर जा बैठे थे। असीम कैमरे से आसपास को खंगाल रहा था। वो बस बैठी थी... तेज लहरों को एकटक देखते हुए...। धारा का वेग उसकी चेतना को भी बहा ले जा रहा था। वो अचानक खड़ी हुई... घाट की पहली सीढ़ी पर पैर रखा... फिर दूसरी... फिर तीसरी... लहरों ने उसे कमर तक भिगो दिया था उसने बेखयाली में जंजीर को छोड़कर चौथी सीढ़ी की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि खयाल लौट आया – ये क्या कर रही थी तू...?
उसने जंजीर पकड़कर आसपास नजरें दौड़ाई, असीम थोड़ी दूर जाकर फोटो ले रहा था... कोई भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था। यदि ये बेखयाली और नीचे की सीढ़ियों की तरफ ले जाती तो...! उसे खुद से ही वहशत होने लगी...। वो लौट आई थी अपनी चेतना में... यदि भीतर का ये आवेग लहरों के हवाले कर देता उसे तो...! यदि वो बह जाती तो निश्चित ही कहीं दूर उसकी लाश मिलती... या शायद वो भी नहीं... क्योंकि बहाव तो क्रूर होता है... निर्मम भी...। उसने अपनी दुनिया में नजरें दौड़ाई... उसके न होने से किसकी दुनिया में फर्क आता... सबकी दुनिया भरी-पूरी है... सिवाय असीम के... सिर्फ असीम की दुनिया ही सूनी होती... उसे अचानक असीम पर लाड़ आया। वो अब भी पहली सीढ़ी पर खड़ी थी। असीम लौट आया था... चलें, सुबह जल्दी उठना है।
उसने झुककर अंजुरी में गंगा को भरा और अपने सिरपर उँढेल लिया...। ऐसा आवेग कभी आता नहीं है, उसने हाथ जोड़े तो ना जाने क्यों आँसू उमड़ आए... पलट कर चप्पल पहनी और असीम का हाथ थामे हुए भीड़ में से रास्ता बनाते दोनों लौट आए...।



Saturday 14 April 2012

उम्र की नोटबुक



साफ़-शफ्फ़ाफ़
कोरे-करारे सफ़ों की
नोटबुक-सी है उम्र

हर पन्ने पर
जिंदगी करती चलती है
हिसाब

सुख-दुख, झूठ-सच
सही-गलत, मान-अपमान
नैतिक-अनैतिक, सफलता-असफलता
और ना जाने किस-किसी चीज का

लिखती जाती है
सफ़ों-पर-सफ़े
करती जाती है खत्म
उम्र को जैसे

और भरी हुई नोटबुक
अख़्तियार कर लेती है
एक दिन
शक्ल रद्दी की...

Saturday 7 April 2012

कई मायनों में इंसान से बेहतर है जानवर....

सुबह जल्दी उठ पाओ तो दिन कितना संभावनाओं भरा हो जाता है... कोई टुकड़ा अपने लिए भी बचाया जा सकता है, किसी में सपने भरे जा सकते हैं और किसी हिस्से को बस यूँ ही हवाओं में उड़ाया भी जा सकता है... उस सुबह का वो ऐसा ही खास समय था। अखबार आस-पास सरसरा रहे थे, लेकिन विचार शून्यता की ही-सी स्थिति थी। निर्विकार भाव से आँखें हरेक चीज का जायजा ले रही थी, लेकिन इसमें न तो कुछ पा लेने की जल्दी थी न कुछ ठीक करना था और न ही कोई उद्विग्नता थी.... चाय के कप, अभी-अभी पढ़कर छोड़े पन्ने-पन्ने रखे हुए अखबार... खुली हुई चादरें, टेबल पर नई सीडी के रैपर, मुँह खोले पड़ा लैपटॉप और रात को पढ़ते-पढ़ते उल्टी कर रख छोड़ी किताब सिरहाने पड़ी थी। खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलस्सुबह की हल्की ठंडक भी... हर चीज जैसे उसी जगह के लिए बनी हुई थी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी, न आगे की योजना थी, वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूँ ही विचार तंद्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। तंद्रा भंग हो गई... नजरें टिक गईं। बँटने के लिए ही तो रोशनी और दिन हुआ करता है। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुँह में कपड़े का छोटा-सा टुकड़ा था, जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। करीब 40-45 सेकंड तक वो उस कोशिश में लगी रही... उसी दौरान एक और गिलहरी वहाँ आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं... ये क्रम भी 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी, वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं... कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियाँ को लेकर, एकबारगी ये विचार आया कि क्यों नहीं इसे कैमरे से शूट कर लिया जाए...! लेकिन कुछ सोचकर इस विचार को स्थगित कर दिया और नजरें पूरी तरह से वहीं गड़ा दी...। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही... फिर एकाएक वो कूलर के अंदर घुस गई और उसने अंदर से उस कपड़े को खींच लिया... मैं हतप्रभ... कितनी योजना, कितना सामंजस्य... कितनी समझ, कितना प्यार... और कितनी बुद्धि। विचारों के प्रवाह को जैसे एक झटका लगा था। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है, कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था...। मान लिया, भूल गए कि बारिश से पहले चींटियाँ अपना खाना जमा करती है, क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है, वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई सारे अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। जानवरों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने 1958 में जापान के एक द्वीप पर एक मादा बंदर को आलूओं को धोकर खाते देखा था, बाद के सालों में उन्होंने ये पाया कि वहाँ के बंदरों की अगली पीढ़ी के बच्चों ने भी इसी पद्धति को अपनाया... तो क्या मादा बंदर का नवाचार उसकी बुद्धि का पता नहीं देता है? और क्या उसका अनुसरण जंतुओं में बुद्धि का पता नहीं देती है... ! याद आता है माँ का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बहुत बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊँगलियों औऱ अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते... वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूँढती रहती, कई बार वो हाथ पर चढ़ भी जाती है। कभी इस खेल को आगे बढ़ाने के लिए जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से उससे बाहर निकलने की जुगत लगा लेती... तो फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती...? बाद में अलग-अलग अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है, प्यार, संवेदना, समझ, अपनापन सब कुछ होता है...। भाषा भी होती है, अब ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के आपसी संबंधों को...। तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हम इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है... जैसे बुद्धि...! लेकिन सही है, कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है... जाहिर है, तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी...। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है, और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुँचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश, प्रसार-फैलाव है, जो इस लालच और हवस की ही देन है, तो हुआ ना इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...:-(