Friday 11 November 2011

अभिभूत करते लोग... पार्ट – 1


आजकल मुझे वो चीजें अभिभूत करती है, जो हकीकत में कुछ है ही नहीं। चमचमाती गाड़ियाँ, खूबसूरत कपड़े, महँगे गैजेट्स, चौंधियाती पार्टियाँ, खूबसूरत चेहरे, डुबाता संगीत या फिर गहरी किताबें अभिभूत नहीं करती। करते हैं जमीन से जुड़े लोग, स्वार्थ को दरकिनार कर दूसरों के लिए सुविधा जुटाते, हँसते हुए संघर्ष करते, अपने दुख-दर्द को बहुत करीने से सहेजते-सहते, सीखने के लिए खुले हुए, नया करने के लिए राह बनाते-निकालते लोग, छोटे-छोटे, नाजुक और मासूम-से जैस्चर्स और मीठे-मीठे रिश्ते... कहीं ठहर जाते हैं, भीतर और उस तरह उतरते चले जाते हैं जैसे बारिश की फुहारों का पानी उतरता रहता है जमीन के अंदर.... गहरे.... गहरे और गहरे...। अजीब है, लेकिन है... इन दिनों ऐसा ही कुछ अभिभूत करता है। पिछले कुछ दिनों से कुछ ऐसे ही लोग आसपास से गुजर रहे हैं और जीने का उनका तरीका, परिस्थितियों से लड़ने का साहस और जीवट मेरी यादों की किताब में दर्ज हो रहे हैं, उनके जीवन के गहरे अर्थ खुलते हैं और नया जीवन दर्शन भी मिलता है।
दीपक - वो हमारे घर पुताई करने के लिए आया था। रैक की किताबों को बहुत गौर से देख रहा था। यूँ ही पूछ लिया पढ़ते हो...। उसने बड़ी विनम्रता से नजरें झुकाकर गर्दन हाँ में हिला दी। हमने बड़े आश्चर्य से फिर से अपना सवाल दोहराया – पढ़ते हो?
इस बार उसने बहुत आत्मविश्वास से हमारी आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया – हाँ... पढ़ रहा हूँ।
उसके विनम्र आत्मविश्वास ने हमें चौंकाया – कौन-सी क्लास में...?
10 वीं में – उसने जवाब दिया।
कौन से स्कूल में ...?
उसने शहर के एक बड़े प्राइवेट स्कूल का नाम लिया...। हमने अपनी आँखों को थोड़ा फैलाया... – उसकी फीस तो बहुत ज्यादा है।
हाँ...- अबकी उसने आत्मविश्वास से मुस्कुरा कर जवाब दिया – तभी तो छुट्टी-छुट्टी काम करके फीस जमा करता हूँ। पिता मजदूरी करते हैं, वो हमें रोटी देते हैं। फीस की उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती है। पढ़ना चाहता हूँ, इसलिए अपनी फीस का इंतजाम मुझे खुद ही करना चाहिए। बस... टुकड़ों-टुकड़ों में थोड़ा-थोड़ा काम करके साल भर में इतना पैसा जमा कर लेता हूँ कि स्कूल की फीस निकल जाए।
तीन दिन उसने बहुत मेहनत और लगन से काम किया। उसके काम का तरीका देखकर महसूस हुआ कि ये काम उसके पढ़ने के जुनून का हिस्सा है और उसके जुनून का इंप्रेशन भी...। वो काम कर जा चुका है, लेकिन जीवन के अनुभवों पर उसका नक्श हमेशा के लिए अंकित हो गया।
लक्ष्मी – पता नहीं कैसे वो हमारी झोली में आ गिरी थी। हरफनमौला... यूँ काम तो करती थी खाना बनाने का, लेकिन जो काम बताओ उसे पूरे उत्साह से अंजाम देती थी। खाना बनाने से लेकर कपड़ों को ठीक करना, छोटा-मोटा सामान खरीद कर ला देना, बालों में मेंहदी लगा देना या फिर मौका-बे-मौका फेशियल ही कर देना। दीपावली की सफाई की कल्पना तो उसके बिना की ही नहीं जा सकती थी। पिता मंडी में हम्माली करते हैं और माँ प्राइवेट स्कूल में खाना बनाती है। वो खाना बनाने का काम इसलिए करती है ताकि पैसा जमा करके ब्यूटीशियन का कोर्स कर सकें। अभी उसका टारगेट पूरा नहीं हुआ था... भागती हुई हमारे यहाँ खाना बनाने आती थी, यहीं से ट्रेनिंग के लिए... शाम को ट्रेनिंग से लौटते हुए घर आकर खाना बनाती थी और फिर अपने घर जाकर खाना बनाती थी। पिछले दिनों बस का इंतजार करते हुए मिली तो बिल्कुल बदली हुई...। धूप से बचने के लिए आँखों पर काला चश्मा था, जींस पर कुर्ता और छाता लेकर खड़ी थी। हमने पहचान कर लिफ्ट दी तो उसने बताया कि जहाँ उसने ट्रेनिंग की वहीं पर नौकरी भी करने लगी है। महीने भर की तनख्वाह के साथ ही हर फेशियल पर कमीशन अलग...। वो खुश है, क्योंकि उसने अपनी राह तलाशी और मंजिल भी पाई है।
यूँ ये लिस्ट बहुत लंबी है, लेकिन फिलहाल इसमें सिर्फ दो ही लोगों को शामिल किया है। जैसे-जैसे लिखती जाऊँगी इसे विस्तार दूँगी। चूँकि हरेक किरदार अपने-आप में एक पूरी कहानी कहता है, इसलिए ये जरूरी नहीं है कि इसे शृंखलाबद्ध तरीके से ही लिखा जाए। इसलिए इस कड़ी में बस इतना ही... अगली कब होगी, कहा नहीं जा सकता...।

Sunday 6 November 2011

रास्ते में यूँ ही...!


अपनी गाड़ी खराब होने के दौरान बस के समय को साधने और किसी वजह से बस छूट जाने के बाद बस या ऑटो का इंतजार करना कैसा होता है, ये वो ही समझ सकता है, जिसे ये करना पड़े। जब कभी ऐसा होता तो लगता कि काश कोई महिला अपनी टू-व्हीलर या फिर कार में हमें मुख्य सड़क तक लिफ्ट दे दें, माँगना अपने राम को कभी आया ही नहीं। किसी को अपनी कोई चीज ही दी हो, चाहे उपयोग करने के लिए, उधार (ये तो सिर्फ पैसा ही दिया जाता है) या फिर उपहार में... जरूरत पड़ने पर माँगने में जैसे हमारी ही जान निकल जाती है, तो अब खड़े हुए बस या ऑटो का इंतजार करेंगे, लेकिन लिफ्ट... वो तो नहीं होना। ऐसे ही किसी समय में ये तय किया कि अब अपनी गाड़ी में हम उन महिलाओं और लड़कियों को लिफ्ट देंगे जो हमारे जाने के रास्ते में कहीं भी जाना चाहेंगी। दी तो लड़कों-पुरुषों को भी जा सकती है, लेकिन इसमें बड़ा झंझट है... कई सारे पेंच हैं।
हुआ ये कि जिस दिन ये तय किया उसके बाद कभी ऐसा मौका आ ही नहीं पाया। कभी हम निकले तो बस सामने खड़ी थी, जिसमें चढ़ने के लिए कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाती लड़कियाँ इंतजार कर रही थी, तो कभी पूरे परिवार के साथ महिला खड़ी थी, तो कभी एकसाथ इतनी लड़कियाँ खड़ी बतिया रही थी कि उन सारी की सारी को गाड़ी में बैठाने की गुँजाइश ही नहीं थी, कुछ और नहीं तो खुद हमें ही इतनी हड़बड़ी होती थी कि गाड़ी रोककर ये पूछना तक समय जाया करना लगता कि – कहाँ जाना है, मैं छोड़ देती हूँ। देखिए नीयत भी हो, इच्छा भी... लेकिन नसीब...! उसका क्या...?

पता नहीं सब कुछ बड़े आराम से करने, सुबह की पूरी दिनचर्या को विलासिता के साथ शब्दशः निभाने और फेसबुक पर लपककर जुगाली करने के बाद भी जल्दी तैयार हो गई। लगा कि आज गाड़ी को भी थोड़ा दुलरा दिया जाए। धूप खासी थी फिर भी कपड़े का एक झटका इधर मारा, एक झटका उधर मारा और ऊब होने लगी तो लगा कि सेल्फ मारे और चलें काम पर। भई देर से जाओ तो शर्मिंदा होओ... जल्दी जाने में कैसी शर्म...? वहाँ पहुँचकर थोड़ा पढ़ने का समय ज्यादा मिल जाएगा। तो दफ्तर के लिए निकल पड़े। आज... हुई मन की...। मुख्य सड़क पर एक दुबली-पतली, छोटे कद की लड़की जींस-टीशर्ट पहने, सिर सहित मुँह को स्कार्फ से ढँके खड़ी थी... हमने गाड़ी रोकी और फिल्म चढ़े दूसरी तरफ वाले शीशों के अंदर से झाँका... लेकिन लड़की ने तो कोई भाव ही नहीं दिया। हम थोड़े आहत हुए, लेकिन तुरंत ध्यान आया... उस बेचारी दिखाई ही नहीं दे रहा होगा... तो थोड़ा झुककर शीशा उतारा... – कहीं छोड़ दूँ? आवाज तो क्या पहुँच रही होगी... बस उसने ही कुछ अपने से समझ लिया... वो करीब आई... मुस्कुराई और कुछ बुदबुदाई। जैसे उसने मेरी बात बिना सुने समझ ली... मैंने भी समझ ली...। दरवाजा खोला और वो अंदर आ बैठी। थोड़ी सकुचाई-सी वो बैठी रही...मैंने पूछा पढ़ती हो (क्योंकि स्कार्फ से चेहरा ढँका होने पर उसका स्टेट्स कि काम करती है या पढ़ रही है, पता नहीं चलता है, फिर बात करने के लिए कोई तो बात हो...)?
उसने कहा – हाँ।
मैंने पूछा – कहाँ?
उसने जवाब दिया – जीडीसी...
ओह तो फिर तो मैं तुम्हें वहाँ तक छोड़ सकती हूँ। वो तो मेरे ऑफिस के रास्ते में ही है। - मैंने उत्साह में आकर कहा।
उसने कहा – मुझे लगा कि आपको दूसरी तरफ जाना होगा।
कहाँ रहती हो से लेकर, क्या पढ़ रही हो तक की सारी बातें हुई। मैंने उसका नाम भी पूछा, लेकिन उसने सिर्फ मेरा सरनेम पूछा और ब्राह्मण पाकर कुछ खुश भी हुई (स्कार्फ बँधे होने की वजह से उसका चेहरा नहीं देख पाई, लेकिन उसकी आवाज की चहक से मुझे ऐसा अनुमान हुआ)। एक-दो बार मन हुआ कि उससे कहूँ कि अब तो गाड़ी के अंदर हो, स्कार्फ हटा सकती हो... लेकिन कह नहीं पाई। उसका कॉलेज आ चुका था, अब तक भी उसने स्कार्फ नहीं हटाया था। गाड़ी रूकी तो उसने कहा – थैंक्स मैम, नाइस टू मीट यू...।
मैंने भी उसे कहा – सेम हियर... बाय। वो कॉलेज के अंदर चली गई और मैं अपने रास्ते... । विचार चल रहा था, यही लड़की यदि अगली बार कहीं मिली, चाहे स्कार्फ के साथ या फिर बिना स्कार्फ के... मैं उसे नहीं पहचान पाऊँगी...। फिर सवाल उठा कि मैं उसे पहचानना ही क्यों चाहती हूँ। कभी... दिखे तो लगे कि किसी दिन इस लड़की को मैंने उसके कॉलेज छोड़ा था...। फिर प्रतिप्रश्न – और ऐसा क्यों चाहती हो...? कोई जवाब नहीं मिला...। फिर इन कबाड़ से सवाल जवाब में से एक नायाब निष्कर्ष निकला। ‘अच्छा ही हुआ जो लड़की ने अपना स्कार्फ नहीं हटाया। यदि भविष्य में वो कहीं मिली तो पहचान का कोई चिह्न ही नहीं होगा, मेरे पास इससे ये अहसास भी नहीं होगा कि कभी इसे इसके कॉलेज तक लिफ्ट दी थी...कोई बेकार का अहंकार भाव नहीं उभरेगा... वाह!’ कुछ ऐसा लगा जैसे बाल कटवाने पर, या फिर हर दिन ले जाने वाले बैग की सफाई कर बेकार चीजों को निकाल दिया हो, या फिर कमरे या अलमारी की सफाई कर कबाड़ निकाल दिया हो और सब कुछ हल्का, खुला-खुला और बड़ा-बड़ा-सा लग रहा हो।
फिर विचार उठा, लेकिन वो तो मुझे पहचानती है ना...! हाहाहा.... तो ये उसकी समस्या है:-)

Wednesday 2 November 2011

ताजमहल और उसका सपना…



बच्चों की भीड़ के बीच माँ उसे लेकर घर लौट रही थी। माँ ने उससे उसका बैग लेने की कोशिश की तो उसने माँ का हाथ झटक दिया। मेरे दोस्त मेरा मजाक उड़ाते हैं...- उसने बड़ी मासूमियत से मुँह फुलाकर माँ से कहा। माँ ने उसे हल्के से छेड़ा – क्यों...?
कहते हैं कि ये तो अभी भी बच्चा ही है, इसे लेने इसकी मम्मी आती है, इसकी मम्मी इसका बैग लेकर आती है... और... – माँ ने मुस्कुराते हुए कहा – इसमें क्या है? अभी तू बच्चा ही तो है।
उसने फिर मुँह फुला लिया। वो कहना चाहता है माँ से कि अब मैं खुद से घर आ सकता हूँ। मुझे घर का रास्ता याद है, लेकिन कह नहीं पाता, क्योंकि एक दिन ऐसे ही अकेले घऱ के लिए निकलते हुए जब वो सड़क क्रॉस कर रहा था तो स्कूटर की चपेट में आ गया था। सिर में चोट लगी थी औऱ स्कूटर वाले अंकल उसका ड्रेसिंग करवा कर उसे जब घर छोड़ने गए तो घर में कोहराम मचा हुआ था। स्कूल छूटे घंटा भर हो गया था औऱ वो घर नहीं पहुँचा था, बस पापा पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए निकल ही रहे थे। उस दिन के बाद से उसे हर दिन माँ ही स्कूल छोड़ती औऱ माँ ही लेने जाती थी। छोड़ते समय तो यूँ भी कोई विकल्प नहीं हुआ करता था, लेकिन स्कूल छूटते में कई बार ऐसा हुआ कि यूनिफॉर्म में एक ही उम्र के बच्चे जब स्कूल से छूटते तो उस भीड़ में माँ उसे पहचान नहीं पाती और वो माँ की नजर बचाकर निकल जाता। माँ बहुत देर तक स्कूल के गेट पर खड़ी रहती, फिर जब स्कूल खाली हो जाता और बड़े बच्चे (वो बड़ी क्लास के स्टूडेंट्स को यही कहता था) आने लगते तब माँ स्टॉफ रूम में जाती और तफ्तीश करती। निराश होकर घर लौटती तो उसे वो घर पर खेलता हुआ मिलता। उसके बाद से माँ वहाँ खड़ी होती है, जहाँ से बच्चों को लाइन से छोड़ा जाता। फिर भी कई बार वो गफलत में माँ की नजर बचाकर निकल ही जाता।

खाना खाते हुए वो माँ से पूछता है – आज आपने मेरे टिफिन में मीठे भजिए नहीं रखे थे?
रखे थे, तूने खाए नहीं क्या?
नहीं थे... सिर्फ अचार-पराँठा ही था। - उसने जोर देकर कहा। लेकिन माँ कैसे भूल सकती है... माँ ने तो खुद तले थे...। माँ को खुटका होता है, कहीं उसका टिफिन कोई और तो नहीं खा रहा है। माँ सोचने लगती है... कल जाकर इसकी क्लास टीचर से शिकायत करनी पड़ेगी। वो मीठे भजिए भूलकर अपने साथ खाना खाती बहन को बताने लगता है - आज है ना मोटी मैडम को धीरज ने पीछे से चॉक मारा और नाम जितेंद्र का ले दिया। उस बेचारे को मार पड़ी।
बहन पूछती है आज तेरी मैडम ने क्या पढ़ाया...?
वो दाल-चावल में शक्कर मिलाते हुए कहता है – आज है ना ताजमहल के बारे में बताया। वो कितना सुंदर है, मैंने उसका फोटो देखा है किताब में... बहुत सुंदर, एकदम सफेद झक्क...। अचानक वो मचल कर माँ से कहता है – मम्मी मुझे एक बार ताजमहल दिखा दो ना...।
माँ भी उसका मन रखने के लिए कह देती है – हाँ दिखा देंगे। और काम में व्यस्त हो जाती है। पता नहीं कैसे उसका ये कहना, बहन के अंदर कहीं खुभ जाता है। वो देर तक इस चीज का हिसाब लगाती रहती है कि यदि हम चारों ताजमहल देखने गए तो कितना पैसा लगेगा, हाँलाकि उसे ना तो इस बात की जानकारी थी कि वहाँ जाएँगें कैसे और टिकट कितना होगा, बस यूँ ही अनुमान लगा रही थी... 200 रु. पर हेड... लेकिन हम दोनों तो छोटे हैं ना। तो हमारी तो आधी टिकट लगेगी, मतलब 200 में तो हमारे दोनों का आना-जाना हो जाएगा। आठ सौ रु. में मम्मी-पापा का आना जाना। वहाँ ठहरेंगे कहाँ...? फिर ठहरने के लिए भी तो पैसा चाहिए होगा...। बहुत माथापच्ची करने के बाद उसका हिसाब बैठा ज्यादा से ज्यादा पाँच हजार रु....। पापा क्या इतना पैसा भी खर्च नहीं कर सकते। पता नहीं कैसे ये बात आई-गई हो गई। फिर एकाध बार ताजमहल का जिक्र हुआ तो उसने बहुत अनुनय से माँ से कहा... माँ बस एक बार दिखा लाओ ना ताजमहल...। उसका अनुनय बहन के मन में गाँठ की तरह पड़ गया। जीवन चलता रहा, वक्त गुजरता रहा। यादें धुँधला गई, सपने कहीं बिला गए।

हालाँकि फतेहपुर सीकरी और आगरा उसके टूर का हिस्सा नहीं था, लेकिन इतिहास से फेसिनेटेड आदित्य ने अपने प्रोफेसरों को एक दिन वहाँ रूकने के लिए मना ही लिया। एक तो बिना किसी विघ्न के यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट टूर से लौट रहे थे, दूसरा फंड भी कुछ बच रहा था, इसलिए पहले फतेहपुर सीकरी और फिर आगरा पहुँचे थे। ताजमहल में घुसते हुए उसे बहुत रोमांच हो रहा था... लेकिन लंबा रास्ता पार कर जैसे ही वह उस भव्य, खूबसूरत और झक्क सफेद ताजमहल के सामने जाकर खड़ी हुई, पता नहीं कैसे कोई स्मृति उड़कर उसके सामने आ गई और उसके मन में हूक उठी...। बचपन नजरों के सामने कौंध गया और उसे अपना नन्हा-सा भाई माँ से अनुनय करता याद आया – माँ एक बार ताजमहल दिखा दो...। उफ्...! कितनी छोटी-सी ख्वाहिश थी। फिर ताजमहल को वो वैसे देख नहीं पाई, अंदर भी गई... पीछे भी और फोटो भी खिंचे-खिंचवाए... लेकिन कुछ कसकता-सा रह गया उसके मन में।

जिंदगी की राह में ऐसे मकाम आने लगे/ छोड़ दी मंजिल तो मंजिल के पयाम आने लगे... गज़ल चल रही थी उसके मोबाइल में। यूँ ताजमहल देखने का उसका सपना नहीं था। पता नहीं ये उसके साथ ही होता है या फिर सबके साथ होता होगा कि सपनों की ऊँचाई उतनी ही होती है, जितनी ऊँची नजर जाती हो...। तो एक बार फिर वो ताजमहल के सामने वाली पत्थर की उस फेमस बेंच पर बैठकर फोटो खिंचवा रही थी, जो ये भ्रम देती है कि ताजमहल हमारी ऊँगली की टिप के नीचे हैं। फिर से भाई का वो सपना उड़कर उसके करीब आकर, उससे सटकर बैठ गया और बहुत मासूमियत से उससे पूछ रहा है कि तुझे तो भाई का सपना याद है, क्या उसे याद है कि उसने भी ये सपना देखा था...!