Tuesday 19 July 2011

काश ऐसा हो पाता....!


साढे़ सात बजते न बजते पूरा घर खाली हो जाता है... सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं और घर में रह जाती है सुगंधा अकेले...। पहाड़ जैसा दिन सामने पड़ा हुआ है और करने के लिए कुछ होता ही नहीं है। घर फिर से 3 बजे गुलजार होगा, तब तक उसे कभी टीवी, तो कभी अखबार-पत्रिकाओं, मोबाइल फोन या फिर किताबों से सिर फोड़ना होता है। तो सुबह साढ़े सात के बाद वह फिर से बिस्तर में घुस जाती है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। कितनी ही कोशिश करे वो दिमाग की चर्खी को चलने से नहीं रोक पाती। कभी अपने खालीपन का कीड़ा, कभी पिता का स्वास्थ्य तो कभी माँ की चिंता... कभी भाई की चिंता, कभी बच्चों की पढ़ाई, पति का स्वास्थ्य तो कभी यूँ ही खुद का भविष्य...(कभी-कभी वो खुद से सवाल करने लगती है कि क्या जिंदगी यही है, इसी तरह से जाया होने के लिए... या इसका कोई मतलब है, लक्ष्य है....? उसका पति भी उसके इस तरह के सवालों से तंग आ चुका है, लेकिन वो क्या करे!) तो कभी कुछ और... कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है उसकी जान को...। समझाने को तो वो किसी को भी ये समझा सकती है कि चिंता किसी भी समस्या का हल नहीं है, लेकिन खुद को समझा पाने जितनी समझ पता नहीं कैसे उसमें अभी तक नहीं आ पाई है। तो रात भर एक खलिश उसके नींद के उपर एक पलती झिल्ली सी पड़ी रही और उसकी नींद उसके नीचे कुनमुनाती रही। सुबह का अपना कर्म पूरा कर उसने खिड़कियों के खुले पर्दे खींच दिए। पंखे की स्पीड कम कर दी और चादर तानकर सोने की कोशिश करने लगी। वो झिल्ली अभी भी जहन पर पड़ी हुई है... क्या करे उसका...?
बारिश का मौसम भी कुछ अजीब होता है, पंखा चले तो ठंडा लगता है और बंद कर दें तो गर्मी लगने लगती है, तो जब सुगंधा को चादर में ठंड़ा लगने लगा तो उसने अपने सिर तक कंबल खींच लिया। कमरे में वैसे ही अँधेरा था, सिर तक कंबल खींच लेने से अंदर का अँधेरा औऱ गाढ़ा हो गया, तो अँधेरे और कंबल के गुनगुनेपन का आश्वासन पाकर नींद झिल्ली तोड़कर उपर आ गई। थोड़ी देर के लिए दुनिया और दुनिया की चिंताएँ कंबल के बाहर ही रह गई और सुगंधा सो गई। हल्की झपकी के बाद जब उसने कंबल हटाने के लिए हाथ उठाया तो उसे एक अजीब सी दहशत हुई... उसे लगा जैसे वो अंदर बहुत सुरक्षित है और जैसे ही उसने कंबल हटाया बाहर खड़ी दुनिया उसे झपट लेगी... और वो वहीं साँस रोके लेटी रही..., लेकिन जल्दी ही उसका ये भ्रम भी टूट गया। कलाबाई ने घंटी बजाई, तो उसकी आवाज कंबल को छेदते हुए आ गई... सुगंधा ने उठकर दरवाजा खोला। कंबल को घड़ी करने के लिए हाथ बढ़ाते हुए उसने गहरी साँस ली... – काश ऐसा हो पाता कि कबंल के नीचे का अँधेरा, उसे दुनियादारी से मुक्त और दूर कर पाता...। उसने बहुत एहतियात से कंबल को उठाया जैसे ये उसका सुरक्षा घेरा हो और वो उसे छूकर आश्वास्त होना चाहती हो...।

Sunday 17 July 2011

....मुझको सन्नाटा सदा लगता है!


वो नहीं जानती है कि उसकी आँखें मुझे उसके सारे हाल की चुगली कर देती है। उसे तो बस ये भ्रम है उसके अंदर का तूफान बे-आवाज आता है और गुजर जाता है, किसी को उसकी खबर नहीं लगती है। मैं भी उसके भ्रम को भ्रम ही रहने देता हूँ। उस दिन भी हम दोनों एक रिसर्च पेपर के लिए नोट्स ले रहे थे, और उसके अनजाने ही उसकी बेचैन तरंगें मुझे लगातार झुलसा रही थी... जला रही थी। बार-बार उसका गहरी साँस लेना... मुझे भी बेचैन कर रहा था, लेकिन पता नहीं कैसी जिद्द में था कि बस... पूछा ही नहीं। ये जानते हुए भी कि वो खुद अपनी बेचैनी का पता कभी नहीं देगी...। हम दोनों के बीच बहुत बातें हुआ करती है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जो अनकहा ही रह जाता है। पता नहीं उसमें से भी कितना हम दोनों समझ पाते हैं और कितना छूट जाता है!
वो एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में बाहर जाने वाली थी। उसने कुछ कहा नहीं था, मैंने कुछ पूछा नहीं... सुबह-सुबह जब मैं उसके घर पहुँचा तो वे अपना सामान निकालकर ताला लगा रही थी। मुझे देखकर वह चौंकी नहीं... ऐसे जैसे... वो तो जानती ही थी कि मैं पहुँचूगाँ ही...। बिना कुछ कहे मैंने उसका एयरबेग उठा लिया। वो भी कुछ नहीं बोली और गाड़ी में बैठ गई। वो कहीं और थी... गियर बदलने की मजबूरी के बाद भी... पता नहीं कैसे मैनेज कर लेता हूँ और उसके हाथ पर अपना हाथ रख देता हूँ। वो सूनी आँखों से देखती है, कुछ नमी तैरती है और इशारे से सामने देखने की ताकीद करते हुए फिर कहीं गुम हो जाती है। गाड़ी के जाते ही मुझे लगने लगता है जैसे मैं बहुत थक गया हूँ और अभी यहीं आराम करना चाहता हूँ। खाली स्टेशन पर हाल ही में खाली हुई बेंच पर जाकर बैठ जाता हूँ।

उन तीनों दिन में लगभग हर दिन उससे बात हुई थी, लेकिन कल दिनभर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ मैं बिज़ी रहा, कुछ वो और कुछ नेटवर्क... तो बात हो ही नहीं पाई। आज उसे लौटना है।
सुबह से ही जैसे मुझे किसी आहट का इंतजार है। आज मेरी छुट्टी है और दिन भर सामने पसरा है एक लंबे-चौड़े मैदान की तरह... अब मुझे उससे खेलने की स्कील जुटानी है। मोबाइल बजा तो कई बार... लेकिन मेरी चेतना जैसे किसी खास आवाज की राह देख रही है। शाम... जब आधी नींद और पूरी खुमारी के बाद जागा तो आखिर वो आहट सुनाई दी।
कहाँ हो...?
घर पर ही, कब लौटी? – जानते हुए एक बेकार-सा सवाल।
मैं आ रही हूँ। - सारी औपचारिकता को दरकिनार कर धरती-सी उदारता के साथ उसने सूचना दी।

दिन भर तेज धूप रही, लेकिन शाम घिरते ही ना जाने कैसे आसमान पर बादल जमा होने लगे। उसके आने की खुशी में मैंने घर की हर चीज को छूकर देखा... पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरी ही तरह मेरे घर को भी उसकी आमद का इंतजार है। उसकी ही गिफ्ट की हुई बाँसुरी की सीडी लगाई... और आवाज को बहुत धीमा कर दिया। बॉलकनी में दो कुर्सियाँ और टेबल लगाई, क्योंकि वो जब भी आती है, यहीं आकर बैठती है, बिल्डिंग के पिछले हिस्से में कॉलोनी के बगीचे के ठीक उपर ही है मेरी बॉलकनी...। घर के सारे दरवाजे-खिड़की और पर्दे खोल दिए। वो जब आई तब तक ठंडी हवाएँ चलने लगी थी। उसने पर्स सोफे पर पटका और सीधे बॉलकनी की कुर्सी में जाकर धँस गई। वो अपने टूर के बारे में बता रही थी, मैं उसे सुन रहा था... देख रहा था। अचानक उसकी बेचैन साँस ने मुझे फिर से छुआ, एक सिहरन हुई... वो उठकर अंदर आ गई...। उसने शिकायत-सी की - कितना शोर है!
पार्क में खेलते बच्चों की चिल्लपों के साथ ही आसपास के और भी लोग लगता है कि अच्छे मौसम को लूटने के लिए पार्क में जमा हो गए थे और उन सबकी सम्मिलित आवाजें... नीचे से गुजरते वाहनों का शोर... मुझे भी महसूस हुआ कि वाकई बहुत शोर हो रहा है। वो ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर बैठ गई। सोफे की पुश्त पर सिर रखा – ये लाइट और ये म्यूजिक सिस्टम बंद कर सकते हो? – उसने जैसे गुज़ारिश की।
यार... आजकल मैं लाइट और साउंड को लेकर बहुत संवेदनशील हो चली हूँ। मुझे लगता है कितना शोर है आसपास... कितनी आवाजें आ रही है। मुझे रोशनी बेचैन करने लगी है। टीवी, रेडियो, वाहनों यहाँ तक कि पंखे के चलने की आवाज... और कभी-कभी तो घड़ी की सुईयों के सरकने की आवाज तक मुझे बेचैन किए देती है। - उसने अपनी हथेलियाँ खोलकर उँगलियाँ अपने बालों में कस ली। बाहर तेज बारिश होने लगी तो पार्क पूरा खाली हो गया। एक तरह से सारी कृत्रिम आवाजें बंद हो चली थी। वो उठकर बॉलकनी में आ गई।
मैंने उससे पूछा - चाय पिओगी...?
हाँ, नींबू है...?
नींबू चाय पीना है? – मुझे याद आया... उसे पसंद है। उसने कहा कुछ नहीं... बस गर्दन हिलाकर हाँ कर दी।
यूँ भी शाम उतर रही थी और फिर घने बादलों ने रोशनी और भी कम कर दी थी। धीरे-धीरे अँधेरा गाढ़ा होने लगा था। मैं किचन में चाय बनाने चला आया। चाय लेकर लौटा तो लाइट जा चुकी थी। बारिश बहुत तेज होने लगी थी... अब सिर्फ बादलों के बरसने की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज शेष नहीं थी। स्ट्रीट लाइट की हल्की रोशनी में उसने चाय का गिलास उठा लिया था। उसने बहुत मायूसी से कहा – शोर है दिल में कुछ इतना/ मुझको सन्नाटा सदा (आवाज़) लगता है। बिजली की चमक में उजाले में मैं उसकी आँखों में समंदर उतरते देखता हूँ और खुद को उसमें डूबते पाता हूँ। एक गहरी साँस आती है, मेरा समंदर तो ये भी नहीं जानता है कि कोई उसके खारे पानी में घुट कर मर रहा है।
चाय का सिप लेकर गिलास को दोनों हाथों में थामते हुए वे कहती है – नाइस टी...।

Sunday 3 July 2011

संघर्ष खुद से....!


मैंने उसे बहुत गहरी नींद से जगाया था। हड़बड़ा कर उठी थी वो... मैंने उसे आदेश-सा दिया, मेरे साथ चल, मुझे तुझसे कुछ बात करनी है...। मैं समझती हूँ कि वो बहुत गहरी नींद में थी, लेकिन मैंने उसकी कलाई को बहुत सख्ती से पकड़ लिया, और घसीटती हुई ही उसे ले जाने लगी थी। रात गहरी थी, सन्नाटा घना... वो अनमनी-सी, समझ नहीं पा रही थी कि मैं उसके साथ ऐसा क्यों कर रही हूँ!
लग तो मुझे भी रहा था कि मैं ये क्या कर रही हूँ? क्यों? का जवाब था मेरे पास, क्योंकि एक खऱाश, खलिश, घुटन मुझे लगातार महसूस हो रही थी और मुझे लगने लगा था कि बस उसकी वजह वो ही है। हम चलते चले जा रहे थे। एकाएक लगा कि एक नदी उग आई है, (तब मेरा विश्वास यकीन में बदल गया कि, मैं सपना देख रही हूँ, क्योंकि नदियाँ क्या ऐसे उगा करती है? सदियों तक पानी बहता है, तब जाकर नदी का रूप लेता है। खैर).... उछलती-कूदती शोर मचाती नदी रात के अँधेरे में थोड़ी और शैतान लगने लगी है। किनारे पर रखे पत्थरों पर हम दोनों ही बैठ गई। मुझे पता नहीं चला कि कब मेरी उँगलियों की पकड़ ढीली हो गई। मेरे चेहरे की सख्ती थोड़ी ढल गई। उसने अब मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा – हाँ, बोल...।
मेरी नजर सीधी-काट देने वाली – तू जानती नहीं है क्या?
क्या? – उसका बहुत मासूम-सा सवाल
तू नहीं जानती है कि मुझे कितनी घुटन हो रही है, खुद को मैं कितना उपेक्षित होते हुए देख रही हूँ...! – मैंने तल्ख होकर उससे पूछा था।
उसके चेहरे पर बहुत भोलापन उतर आया... – नहीं, तू क्यों घुटती है, औऱ तेरी उपेक्षा कौन कर सकता है?
तेरी वजह से हो रहा है ये सब... – मैने थोड़ा नर्म होकर उससे कहा। मेरे अंदर कुछ बेतरह सुलग रहा था। - तेरे दिखने ने मेरे होने को खत्म कर दिया है। ये मत समझना कि मैं तुझसे जलती हूँ... – मैंने तीखी बात को अंदर ही ठेल दिया।
बस तू मुझे मुक्त कर दें... मुझे घुटन होने लगी है। ये भौतिकता मुझ से नहीं सधती है। लगातार सतर्कता... जैसे सारी ऊर्जा एक ही जगह जाया हो रही है। - रोकते-रोकते तक कड़वाहट उभर ही आई।
जाया हो रही है? - उसने आहत भाव से पूछा।
हाँ, सारी चेतना जैसे एक ही जगह बह रही है, तेज प्रवाह से... भौतिक होने पर... दैहिक होने पर... मुझे उससे निजात चाहिए। - मैंने जैसे फैसला सुना दिया।
मेरे करने से कहाँ कुछ बदलता है? - उसने अपनी बेबसी जाहिर की। - कितना भी करो, भौतिकता से कहाँ निजात है। कौन हमारे होने तक पहुँच पाता है, या पहुँचना चाहता है! किसके पास है इतनी फुर्सत...? - ना चाहते हुए भी उसकी पीड़ा छलक पड़ी थी।
पता नहीं ये पूरे चाँद की रात का असर है या यूँ ही-सा एक जुनून सवार था, मैं किसी भी कीमत पर हार मानने को राजी नहीं थी। कुछ चाहना अपना भी होता है मेरी जान... – ताना मारा था, मैंने।
तूने कब चाही मुक्ति... तू भी इसमें धँसे रहना चाहती है। आखिर तो किसे पसंद है, हर दिन, हर वक्त की जलन, चुभन, उबलन और बेचैनी...। बाहर सबकुछ खूबसूरत होना बहुत बड़ी राहत है, ये तो तू भी जानती ही है ना...! – उसे घायल करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हूँ। कभी-कभी होता है ना एक तरह का पागलपन सवार... बस ये कुछ ऐसा ही था, जब हम जानते हैं कि ये सरासर पालगपन है, फिर भी उसे जारी रखे रहते हैं, क्यों... ये तो सोचते ही नहीं।
उसकी बड़ी-बड़ी आँखे डबडबाने लगी थी, हालाँकि मेरे अंदर कुछ नर्मा रहा था फिर भी एकदम से नहीं। - जब सब कुछ अच्छा लगे तो फिर क्या ठीक करना और क्यों ठीक करना...?
वो एक तरह से मिन्नत ही कर रही थी – देख मैं भी तो तेरे साथ ही लगी हुई हूँ..। तुझसे अलग कहाँ हो पा रही हूँ? जो जैसा तू चाहती है, वैसा ही मैं भी तो कर रही हूँ। तू बता और क्या करूँ, जो तेरी घुटन कम हो..।
वो उठकर मेरे करीब आ गई। मेरी गोद में सिर रख दिया तो मेरे अंदर कुछ बहुत तेजी से पिघलने लगा। मेरी ऊँगलियाँ उसके बालों में घूमने लगी। मैंने उससे वादा लिया – तू हमेशा मेरे ही साथ रहेगी ना...! मुझे कभी अकेला तो नहीं छोड़ेगी ना...! तू जब बाहर हो जाती है ना, तो मैं बहुत अकेली पड़ जाती हूँ। मैं तेरा भीतर हूँ, चाहे जलता हुआ, उबलता हुआ हूँ, लेकिन तेरे होने का साक्षी और साथी भी... तू जानती है ना...!
उसने सिर उठाया, आँखों में अब भी आँसू थे। सिर हिलाकर हामी की और मुझे कमर से कस लिया। कहीं मेरी आँखें भी भीग गई थी। आँसू को ढ़लकने से बचाने के लिए सिर उठाया तो चाँद का अक्स नदी में नजर आया। यूँ ही एक विचार आया कि चाँद तक खुद को निहारता है, तो फिर इंसान की तो बिसात ही क्या है?