Wednesday 22 June 2011

कैसा होता, जो यह पैसा न होता !


शायद वो सवाल तब उठा होगा जब पड्डू की दुकान पर उसने 10 पैसे के सिक्के के आकार की गोल-गोल सफेद गोलियाँ काँच की बर्नी में पहली बार देखी होगी। वो गई तो थी 10 पैसे में चार मिलने वाली नारंगी की गोलियाँ लेने, लेकिन उन सफेद गोलियों को देखकर उसका मन बदल गया। लालच आया कि इन सफेद बड़ी-बड़ी गोलियों का स्वाद लेकर देखा जाए, लेकिन पड्डू ने ये कह कर उसे मायूस कर दिया कि ये गोली 10 पैसे में एक ही आएगी। वो उसकी दुकान के उस अनगढ़ पत्थर पर मजबूती से अपने पैर जमाए सोचने लगी कि अब क्या करें?
हाथ में पैसे तो 10 ही है। एक गोली मिलेगी तो उसमें से भाई का भी हिस्सा होगा... मतलब आधी-आधी... ऊँ हूँ... लेकिन... उसने तुरंत निर्णय ले लिया – ठीक है आधी-आधी ही सही। कम-से-कम इस सफेद गोली का स्वाद तो पता चलेगा। ठीक है यही दे दो।
वो गोली लेकर घर आ गई। दोनों के हिस्से में आधी-आधी गोली आई। मीठी और मिंट वाली वो गोली उसे बहुत अच्छी लगी, लेकिन है बहुत महँगी। कहाँ तो नारंगी की गोली 10 पैसे में चार आती है और कहाँ ये 10 पैसे में एक ही देता है... पड्डू ठगता है। किसी ओर दुकान पर पता करूँगी। जब आसपास की दो दुकानों पर भी यही भाव रहा तो उसके मन में बहुत गंभीर सवाल उठा – ये पैसा क्यों है? क्या होता यदि ये पैसा नहीं होता?
उस रात खासी बारिश हो रही थी और घर की लाइट गुल हो चुकी थी... पढ़ाई से मुक्ति थी... इसलिए कल्पना के घोड़े खूब तबड़क-तबड़क करने लगे थे। पता नहीं उसकी ये आदत कब से है कि वो अपने अंदर उठने वाले सवाल कभी बड़ों से नहीं पूछती, खुद ही अपनी छोटी-सी समझ से उत्तर देती रहती। तो उसी ने खुश होकर उत्तर दिया – तो पड्डू से वो कितनी भी और कौन-सी भी गोली लेकर आ सकती।
और पड्डू के पास ये गोलियाँ कहाँ से आती?
अरे ये तो बहुत आसान है। जब पैसा होता ही नहीं, तो पड्डू भी चाहे जितनी गोलियाँ फैक्टरी से ला सकता। और फैक्टरी में क्या गोलियों को बनाने के पैसे नहीं लगते?
कैसे लगते, जब पैसे होते ही नहीं तो फैक्टरी वाले भी तो सारा सामान फोकट में ही लाते। (हालाँकि पैसों की उपस्थिति में पैसों के न होने की कल्पना करना कितना मुश्किल हुआ, ये बस वही बता सकती है... फिर भी...)
साँई फैक्टरी वाले को मुफ्त में जितनी चाहिए उतनी शकर देता, क्योंकि साँई को भी शकर कारखाने से मुफ्त में शकर मिलता। शकर के कारखाने में किसान गन्ना मुफ्त में देता... लेकिन यहाँ एक मुश्किल आ गई – किसान की जरूरत कैसे पूरी होती?
अरे... किसान को भी जो चाहिए, जितना चाहिए सब मुफ्त में ही तो मिलेगा ना...? जब किसान तो अपनी जरूरत का सारा सामान बिना पैसों के मिलेगा तो फिर उसे पैसों की क्या जरूरत होगी? कितना आसान है ना ऐसे जीना? पता नहीं बड़ों ने क्यों पैसे जैसी चीज बनाकर जिंदगी को इतना मुश्किल कर दिया। हर वक्त, हर जरूरत के वक्त ये दीवार की तरह आ खड़ा होता है...!
तर्कों की कड़ी-दर-कड़ी जोड़कर मिले निष्कर्ष पर उसने खुद ही खुद को शाबासी दी और अपनी खोज पर खुश हुई... लेकिन फिर तुरंत ही मायूस होकर उसने फिर सवाल किया – तो फिर पैसे की जरूरत ही क्यों थी?
ये पता नहीं कैसे वो जानती थी कि हर वो चीज जो है या जिसका आविष्कार हुआ है, वो इसलिए है क्योंकि उसकी लोगों को जरूरत है, (तब तक उसने आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है, जैसा कुछ सुना नहीं था) लेकिन वो फिऱ भी इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रही थी कि जब बिना पैसों के सारी चीजें बहुत आसान है तो फिर पैसे की ईजाद हुई ही क्यों होगी?
बहुत सालों तक उसके छोटे-से दिमाग में बड़ों की दुनिया का ये गड़बड़झाला नहीं बैठा, वो सोचती तो बहुत थी, लेकिन वो ये जानती थी कि वो बहुत छोटी है और बड़ों की दुनिया बहुत उलझी हुई है, उसके सोचने से कुछ बदलने वाला नहीं है। यूँ ही तो हर बात पर उसे ये सुनने को मिलता था कि – तू छोटी है, तू नहीं समझेगी। या फिर ये बड़ों की बात है, तेरी समझ में नहीं आएगी। जब तू बड़ी हो जाएगी, तब अपने आप समझ आ जाएगी।

बचपन से निकलने के बाद भी बहुत बुनियादी बातें उसकी अकल में नहीं समाती थी, इसीलिए जब सोवियत संघ ढहा तो उसे आत्मिक कष्ट हुआ। उसने बस सुना ही सुना था कि वहाँ हरेक को उसकी जरूरत के हिसाब से घर मिलते हैं और एक ही तरह का कपड़ा बनता है और तमाम तरह की समानता की बातें..., तो फिर बचपन का सवाल दूसरी तरह से आ खड़ा हुआ...। जरूरतें पूरी होती है, फिर भी क्यों लोग असंतुष्ट रहते हैं?

तो साहब उसे ‘पैसा क्यों है?’ ये बात समझ में आ ही गई आखिर... कब? जब उसने खुद कमाना और खर्च करना शुरू किया। तब उसने जाना कि पैसे का आविष्कार जरूरत पूरी करने के लिए नहीं हुआ है, हवस... लालच पूरी करने के लिए हुआ है। आखिर बिना पैसे के ये कैसे तय होगा कि किसकी जरूरत कितनी है? और किसको कितना मिलना चाहिए? जरूरत तो सिर्फ दो जोड़ी कपड़ों की है, लेकिन यदि उसे कपड़ों से अपनी अलमारी भरनी है तो फिर पैसों की जरूरत होगी ना... आखिर तो जरूरत और हवस में बहुत फर्क है ना औऱ इस फर्क को पाटता है ना पैसा... ओ... ओ... अब पैसा नहीं। कम पैसा और ज्यादा पैसा...। औऱ जब ये गिरह खुली तो दुनिया की बहुत सारी गिरहें उसके सामने खुलती चली गई...।

2 comments:

  1. ...इस थीम पर तो पूरा एक उपन्यास लिख सकती हो ...nice...

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  2. अजीब सी बात है जि‍नके पास ढेर सारा पैसा है वो पैसे के बगैर जीने के सपने देखते हैं, और जि‍सके पास नहीं है वो मरने के..

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