Sunday 3 October 2010

फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाए...


ज्यादातर तो दिल के पास ही रहती है पासबान-ए-अक्ल, लेकिन जब तनहा रह जाता है दिल तो पूछिए नहीं क्या कयामत आती है। मुक्त है मन और हम भी, हवा के प्रवाह की सवारी है और कण-कण खिरते और जाया होते जाने की चेतना भी, फिर से वही खींचतान... होने और होना चाहने की...। दिन-रात सब कुछ हवा पर सवार है, कब आते हैं और कब निकल जाते हैं, कुछ निशान ही नजर नहीं आते हैं। सब कुछ अपनी गति और जरूरत से हो रहा है, लेकिन कहीं कोई असंगति है, तभी तो कुछ भी पहुँच नहीं पा रहा है, वहाँ, जहाँ इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शहद-शहद शरद की रातें पसरी पड़ी है, लेकिन ना जाने क्यों बार-बार क्वांर की तपन की हूक उठती है, यदि ये बाहर है तो अंतर कैसे अलग रह सकता है....! लेकिन ये आँच अंदर पहुँच नहीं पा रही है। पढ़ना, सुनना और जानना सब कुछ तो हो रहा है, लेकिन गुनना नहीं हो पा रहा है। विचार आते नहीं, आते तो ठहरते नहीं और ठहरते हैं तो पकते नहीं... कई बार अंबार होता है, लेकिन वो भी बेकार ही लगता है... अब कच्चे-कच्चेपन में क्या तो स्वाद होगा और क्या गंध...! तो उसे वहीं छोड़ देते हैं, घुम-फिरकर वहीं-वही..... बेचैनी है... सब कुछ तो है, लेकिन जो जगह बरसों तक छटपटाहट के कब्जे में रही उसके मुक्त होने से सबकुछ उलट-पुलट हो गया है, खालीपन उतर कर पसर गया... हर कहीं। आखिर मुक्ति को सह पाना भी आसान तो नहीं ही हैं ना! खुद को कई दफा उलीच लिया, कुछ मिलता ही नहीं है, बस हाथ आती है बेचैनी और डर.... दोनों का एक ही-सा सुर है। कहीं खत्म तो नहीं हो रहे हैं....चुक तो नहीं रहे हैं...? क्या वो समय आ गया है, जहाँ सवाल खत्म होने लगे हैं, सब कुछ को उसी तरह से स्वीकार कर रहे हैं, जैसाकि वो है? आखिर तो इतना सब करते हुए भी क्यों इस तरह का सन्नाटा है... क्यों इतनी खामोशी है....? संतुष्ट हैं और इस संतुष्टि से घबराहट है... क्यों है ये? खुद को हमेशा ही इस बेचैनी और छटपटाहट से आयडेंटिफाई किया है, तो ऐसा लगता है, जैसे आयडेंटिटी क्रायसिस की स्थिति में पहुँच गए हैं।
फिर से – रास आया नहीं तस्कीन का साहिल कोई
फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाए....

1 comment:

  1. बस हाथ आती है बेचैनी और डर.... दोनों का एक ही-सा सुर है। कहीं खत्म तो नहीं हो रहे हैं....चुक तो नहीं रहे हैं...?
    ..........आप कभी भी चुक और चूक नहीं सकतीं....

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