Saturday 30 October 2010

उमंग है तो अवसाद भी होगा


हर तरफ सफाई का दौर चल रहा है... सोचा थोड़ा अपने अंदर के जंक का भी कुछ करे, लेकिन बड़ी मुश्किल पेश आई... सामान हो तो छाँट कर अलग कर दें, लेकिन विचारों का क्या करें? कई सारे टहलते रहते हैं, किसी एक को पकड़ कर झाड़े-पोंछे तो दूसरा आ खड़ा होता है और इतनी जल्दी मचाता है कि पहले को छोड़ना पड़ता है... दूसरे को चमकाने की कवायद शुरू करें तो पहला निकल भागता है, उसके निकल भागने का अफसोस कर रहे होते हैं तो जो हाथ में होता है, उसके निकल जाने की भी सूरत निकल आती है... बस यही क्रम लगातार चल रहा है।... कुल मिलाकर बेचैनी...। अंदर-बाहर उत्सव का माहौल है, लेकिन कहीं गहरे... उमंग और उदासी के बीच छुपाछाई का खेल चल रहा है। आजकल संगीत का नशा रहता है... और इन दिनों एक ही सीडी स्थाई तौर पर बज रही है... मेंहदी हसन की... तो ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’ गज़ल चल रही थी और उसका अंतरा – उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू... के जादू को वो विस्तार दे रहे थे और उस विस्तार से उदासी का मीठा-मखमली जादू फैलता-गहराता जा रहा था।
मन की प्रकृति भी अजीब है, कल जिस बात को मान लिया था, आज उसी से विद्रोह कर बैठता है। ओशो के उद्धरण से समझा लिया था कि जिस तरह के प्रकृति के दूसरे कार्य-व्यापार का कोई उद्देश्य नहीं है, उसी तरह जीवन का भी कोई उद्देश्य नहीं है... लेकिन उस मीठी-मखमली उदासी के समंदर से जब बाहर आए तो जीवन के निरूद्देश्य और अर्थहीन होने का नमक हमारे साथ लौटा... अब फिर से वही कश्मकश है, यदि जीवन है तो फिर उसका कोई अर्थ तो होना ही है और यदि नहीं है तो फिर जीवन क्यों है? और इसी से उपजता है एक भयंकर सवाल... मृत्यु... ?
एक बार फिर चेतना इसके आसपास केंद्रीत होने लगी है... जब एक दिन मर जाना है तो फिर कुछ भी करने का हासिल क्या है? मरने के बाद क्या बचा रहेगा... जो भी बचेगा, उसका हमारे लिए क्या मतलब होगा? औऱ जब मतलब नहीं है तो फिर कुछ भी क्यों करें... ? हाँलाकि सच ये भी है कि कर्म करना हमारी मजबूरी है।
वही पुराने सवाल, जिनका कोई जवाब नहीं है... बेमौका है... उत्सव के बीच है ... खत्म होने से पहले ही अवसाद... यही धूप-छाँव है... यही अँधेरा-उजाला.... सुख-दुख... यही जीवन-मृत्यु... तो फिर उमंग-अवसाद भी सही...। आखिरकार तो नितांत विरोधी दिखती भावनाएँ... कहीं-न-कहीं एक दूसरे से गहरे जुड़ी हुई जो होती है.... नहीं...!

आखिर में – 100 पोस्ट पूरी होने पर वादे के मुताबिक मिला डिजिटल कैमरा, लेकिन त्योहार और व्यस्तता के बीच कहीं आना-जाना नहीं हो पा रहा है तो फोटो लेने की सूरत भी नहीं निकल पा रही है...

Saturday 23 October 2010

ब्लॉग-शतक पूरा



ये ब्लॉग का 100 वाँ पीस है। एक साल 11 महीने और ठीक 2 दिन पहले शुरू किए ब्लॉग अस्तित्व की ये प्रगति कोई बहुत उत्साहजनक नहीं है, आखिर अब तक मात्र 100 पीस ही तो लिखे हैं। कहाँ तो सोचा था कि इसे नियमित लिखेंगे और कहाँ बहुत-बहुत दिनों तक इसमें कुछ पोस्ट ही नहीं हो पाता है। कारण साफ है, जब खुद को उलीच कर कुछ लाना होता है तो जो बाहर आता है, वो तो खदानों से निकले कच्चे हीरे की तरह होता है। फिर हम हीरा बनने की उस प्रक्रिया और समय से तो अनजान ही रहते हैं, लेकिन है तो वो निर्मिति का ही हिस्सा... उसे चमक और कीमत देने का परिश्रम और समय भी तो उसी में जुड़ता है, तो कच्चे हीरे को आकार और शक्ल देने में लगने वाला समय भी तो शामिल था। लब्बोलुआब यूँ है कि जब तक विचार पैदा हो और उसका प्रेशर इतना हो कि उसका बाहर आना किसी भी तरह रोका नहीं जा सके तभी लिखे जाने की सूरत बनती थी।
वैसे ब्लॉग शुरू करने के पीछे लक्ष्य सिर्फ हर दिन होने वाली घटनाओं को लेकर पैदा होने वाली उबलन को शब्द और आकार देना रहा था। शुरुआती कुछ पीस लिखने के बाद ही ये अहसास हो गया कि आमतौर पर ब्लॉग रायटर्स यही कर रहे हैं, फिर यहाँ तो समय और मन दोनों को साधने का दुःसाध्य कर्म करना भी आ जुड़ता था। और इस दौरान उस विषय पर इतना ज्यादा लिखा जा चुका होता था कि फिर अलग से कुछ और लिखने के लिए कुछ बचता ही नहीं था। तो फिर अस्तित्व को अपनी डायरी का रूप दे डाला। इसमें कहानी, कविता (जो कि मेरा माध्यम नहीं है, फिर भी), यात्रा संस्मरण सब कुछ को शामिल कर लिया। फिर पता नहीं कहाँ, कैसे इसका स्वर भीतर की ओर मुड़ गया। खैर ब्लॉग लिखने का उद्देश्य शुरुआती कुछ भी रहा हो, लेकिन लिखते-लिखते महसूस हुआ कि भीतर की तरफ जाते हुए इस लिखने का मतलब खुद के ज्यादा करीब जाना, खुद को जानना, समझना और अपने ‘भीतर’ को शक्ल देना रहा, इसलिए भी संख्या पर विचार क्यों किया जाए... लेकिन कुछ भी गणित से इतर कहीं हो पाया है?
तो आखिर शतक तक का सफर ऊबड़-खाबड़ तो कभी साफ-शफ़्फ़ाफ रास्तों से होता हुआ पूरा हो गया। इस सारे समय में कुछ और हुआ हो या न हुआ हो, अंदर की उलझनों को सुलझाने की स्थितियाँ तो बनी ही है, बेचैनी ने रास्ता पाया, छटपटाहट ने आकार... कहीं-कहीं तो इस बेचैनी का कारण भी हाथ आया... अब इस सारी प्रक्रिया में थोड़ी-बहुत तकलीफ और त्रास तो होना ही हुआ, लेकिन ज्यादातर तो ये खुद के नए सिरे से बनने का ही हिस्सा रहा। यूँ कहें कि लिखने से पहले ये जाना ही नहीं था कि – हम जान ही नहीं सकते हैं कि खुद को कह लेने में जितना हम देते हैं, उससे कहीं ज्यादा हम पाते हैं।
वैसे लिखना व्यावसायिक मजबूरी है, इसलिए सिलसिला तो बहुत दिनों से चल रहा था, लेकिन इस क्रम में दुनियावी मसले ही शामिल थे। अपने बीहड़ की तरफ ले जाते रास्ते से हमेशा कतरा कर निकलते रहे... इसलिए असल में व्यक्त होना कितना भरता और कितना खाली करता है, इस अनुभव से वंचित ही रहे, लेकिन जब व्यक्त होने का लक्ष्य लेकर चले तो खुद को पाते, सुलझाते, जानते, सहेजते, सहलाते और चकित होते चले गए। एक बार इस बीहड़ में उतरने का हौसला दिखाया तो धीरे-धीरे खज़ाने का रास्ता निकलता गया। अब कुछ पाना है तो मुश्किल भी होगी, दुख भी, असुविधा और त्रास भी होगा, पसीना और खून दोनों ही बहेगा... लेकिन जो मिलेगा, उसका सुख कहीं ज्यादा होगा। तो सफर कहाँ रूकेगा, इसका फिलहाल तो कोई अनुमान नहीं है। अपनी कश्ती को अपने ही समंदर में छोड़ दिया है... बस इस उम्मीद में कि कभी तो कोई मोती हाथ लगेगा.... आमीन....!

Sunday 17 October 2010

चाँद गर धरती पे उतरा, देखकर डर जाओगे


हर बार मोबाइल के प्लेलिस्ट में गज़ल को शफल करते हुए दो-चार गज़लों के बाद या तो चुपके-चुपके रात दिन या फिर ये दिल ये पागल दिल मेरा बजने लगती... फिर से अपनी पसंद की गज़ल ढूँढते रहते, आखिर उस दिन म्यूजिक फॉर्मेट करने के दौरान इन दोनों गज़लों को डिलीट मार ही दिया। हाँलाकि हर बार इस बात के लिए डाँट पड़ती है कि – ये क्या बचपना है? खेल बना लिया है म्यूज़िक फॉर्मेट करने को... जितना डालती हो, सुन भी पाती हो... ? यूँ बात तो सही ही है, लेकिन क्या करें कि कम से काम चलता नहीं है!
शहद-शरद रात और अगले दिन की छुट्टी हो तो फिर रात को देर तक जिए जाने के लालच में दूर तक चले जा रहे थे। रात बहुत हो चुकी थी, ये वही सड़कें थीं जो दिन में बिल्कुल दूसरी होती है... शायद ये खुद भी अपने को पहचान नहीं पाती हो...। दिन में जो सड़कें बेहाल-परेशान होती है, वो ही रात को थोड़ी उदास, खूबसूरत और सौम्य हो जाती है, तो घूमने का मजा दोगुना हो जाता है। यूँ लगता है कि वो हमारा ही इंतजार कर रही है। दूर से कहीं से फिर से वही गज़ल ये दिल ये पागल दिल मेरा... उस वक्त अंतरा चल रहा था – एक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब, सेहरा की भीगी रेत पर मैंने लिखा आवारगी... वहीं रूक गए, सरे राह डूबने-डूबने का सामान मिल गया। तो फिर उसे डिलीट क्यों किया था?
अबकी स्मृति की दराज़ खुल गई और बहुत सारी बेतरतीब चीज़ों के बीच अचानक से एक नामालूम-सी फिल्म का डायलॉग याद आ गया कि – सपने जब तक दिमाग में रहते हैं, तभी तक खूबसूरत होते हैं, हाथों में आते ही वे खत्म हो जाते हैं...।
इसका इंटरप्रिटेशन तो यूँ है कि सब कुछ जो आप चाहते हैं, यदि वो हासिल हो जाए तो फिर क्या जीना आसान हो जाता है। नहीं... सरासर नहीं... तब तो शायद जीना और भी मुश्किल हो जाता है, तो फिर... अभाव ही जिंदगी को पूरा करते हैं। यदि आप किसी चीज़ को शिद्दत से पसंद करते हैं तो फिर उससे दूरी बना कर ही खुश रहा जा सकता है। कई बार उसकी दूरी ही सब कुछ को खूबसूरत बनाती है फिर से एक शेर याद आया –
हर हँसी मंज़र से यारों फ़ासले क़ायम रखो
चाँद गर धरती पे उतरा देखकर डर जाओगे...
क्या ग़लत है?
यूँ तो बात यहाँ ख़त्म हुई, लेकिन चलते-चलते मौसम की बात – कई बार कुछ बदमाशियाँ बड़ी मीठी लगती है, अब देखिए ना क्वाँर की विदाई इस तरह बादलों की शरारत से हो तो क्या मीठा नहीं लगेगा... दशहरे की शुभकामना के साथ...

Sunday 10 October 2010

जीवन के प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य...!



महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें...!
पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था... डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत...। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है... इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना... कहीं कुछ छूट नहीं जाए...तथ्य... तथ्य... और तथ्य...। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ... रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा...। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की... और सब खत्म...।
उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली... आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते... जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह... ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’
ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें... और सोचें... क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें... कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें... क्षण को जिएँ... ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा... बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए... क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो...। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए... मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए... बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे...।
इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए...? इस पर विचार करना बाकी है...!

Sunday 3 October 2010

फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाए...


ज्यादातर तो दिल के पास ही रहती है पासबान-ए-अक्ल, लेकिन जब तनहा रह जाता है दिल तो पूछिए नहीं क्या कयामत आती है। मुक्त है मन और हम भी, हवा के प्रवाह की सवारी है और कण-कण खिरते और जाया होते जाने की चेतना भी, फिर से वही खींचतान... होने और होना चाहने की...। दिन-रात सब कुछ हवा पर सवार है, कब आते हैं और कब निकल जाते हैं, कुछ निशान ही नजर नहीं आते हैं। सब कुछ अपनी गति और जरूरत से हो रहा है, लेकिन कहीं कोई असंगति है, तभी तो कुछ भी पहुँच नहीं पा रहा है, वहाँ, जहाँ इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शहद-शहद शरद की रातें पसरी पड़ी है, लेकिन ना जाने क्यों बार-बार क्वांर की तपन की हूक उठती है, यदि ये बाहर है तो अंतर कैसे अलग रह सकता है....! लेकिन ये आँच अंदर पहुँच नहीं पा रही है। पढ़ना, सुनना और जानना सब कुछ तो हो रहा है, लेकिन गुनना नहीं हो पा रहा है। विचार आते नहीं, आते तो ठहरते नहीं और ठहरते हैं तो पकते नहीं... कई बार अंबार होता है, लेकिन वो भी बेकार ही लगता है... अब कच्चे-कच्चेपन में क्या तो स्वाद होगा और क्या गंध...! तो उसे वहीं छोड़ देते हैं, घुम-फिरकर वहीं-वही..... बेचैनी है... सब कुछ तो है, लेकिन जो जगह बरसों तक छटपटाहट के कब्जे में रही उसके मुक्त होने से सबकुछ उलट-पुलट हो गया है, खालीपन उतर कर पसर गया... हर कहीं। आखिर मुक्ति को सह पाना भी आसान तो नहीं ही हैं ना! खुद को कई दफा उलीच लिया, कुछ मिलता ही नहीं है, बस हाथ आती है बेचैनी और डर.... दोनों का एक ही-सा सुर है। कहीं खत्म तो नहीं हो रहे हैं....चुक तो नहीं रहे हैं...? क्या वो समय आ गया है, जहाँ सवाल खत्म होने लगे हैं, सब कुछ को उसी तरह से स्वीकार कर रहे हैं, जैसाकि वो है? आखिर तो इतना सब करते हुए भी क्यों इस तरह का सन्नाटा है... क्यों इतनी खामोशी है....? संतुष्ट हैं और इस संतुष्टि से घबराहट है... क्यों है ये? खुद को हमेशा ही इस बेचैनी और छटपटाहट से आयडेंटिफाई किया है, तो ऐसा लगता है, जैसे आयडेंटिटी क्रायसिस की स्थिति में पहुँच गए हैं।
फिर से – रास आया नहीं तस्कीन का साहिल कोई
फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाए....