Thursday 1 July 2010

अफ्रीका के महासागर पर जूही के फूल



जेठ की अंतिम रात और आषाढ़ के पहले सूर्योदय के बीच का वक़्फ़ा…. बादल अल्हड़ हो रहे हैं इसलिए जिम्मेदारी कहीं नहीं नजर आ रही है। वे आसमान पर उधम तो मचाते हैं, बरसते नहीं है। मौसम विभाग का हमेशा का रोना है.... अभी आया, बस बरसेगा और अगले ही दिन कहना शुरू कर देता हैं कि कमजोर हो गया है, तो मानसून तो जैसे छुपाछाई का खेल खेल रहा है। हाँ तो जेठ की उस गुजरती रात के जालों में से उलझा शेर – सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूँ ही तमाम होती है – टप्प से गिरा और नींद का शीशा झनझना कर टूट गया। दिमाग के गोदाम में पड़े जंक ने यूँ भी बेचैन किया हुआ है, ऐसे में गहरी नींद का रात के ऐन बीचोंबीच टूट जाना...... जैसे खुद का बेवजह, बेकार हो जाना....। गहरी काली और निस्तब्ध रात के बीच आँखों के बल्बों को बेआवाज टिमटिमाने की सजा.... विचारों का रेला गोदाम की दरारों से बाहर बहने लगा तो फिर नींद के आने के लिए जगह ही नहीं बची। कितना कुछ ठूँसा हुआ है, इसमें.... कोई ओर-छोर ही नहीं है। सुबह से रात तक न जाने कितना अटाला हम जमा करते हैं बिना ये सोचे कि इसकी जरूरत कहाँ और कितनी है?
आखिर पता नहीं किस क्षण नींद जिंदगी की तरह अपना रास्ता बनाकर पहुँच ही गई। कहाँ तो अलस्सुबह उठ जाने की योजना थी और कहाँ चाय के कप और सुबह के अखबार के साथ उठाए गए तो घड़ी ने नौ बजा दिए थे...... ओफ! फिर वही बेकार के एक्सप्रेशंस, जिनके होने का कोई मतलब नहीं था.....लेकिन थे। खैर, फिर से जंक जमा करने का सामान था और हम थे। नजरें टिकी थी अखबार के आखिरी पन्ने की उस रोचक खबर पर कि अफ्रीका में महासागर के निशान मिले हैं...... खबर का आखिरी हिस्सा था और पतिदेव ने बाहर से आकर धप्प से एक अंजुरी भर जूही के फूल उस खबर पर बिखरा दिए थे.... वाह क्या इत्तफ़ाक है!
आखिरी हिस्सा यूँ था कि महासागर के उभरने के निशान तो हैं, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में पूरे 1 करोड़ साल लगेंगे..... अब कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक......? लेकिन जूही के छोटे-छोटे, नाजुक फूल तो आज के ही हैं.... आज के ही लिए हैं.....। तो यूँ ही एक विचार आया कि इस क्षण, इस घड़ी, इस जगह को बिसराकर हम भूत-भविष्य, पृथ्वी-अंतरिक्ष की चिंता कर रहे हैं, लेकिन कैसे चूक गए कि मानसून की बारिश न होने के बाद भी कितना कुछ हमारे आसपास घट रहा है..... कैसे चूक गए कि गुलमोहर अब भी अपने लाल भड़क छाते को ताने हर आते-जाते को लुभा रहा है, कि नीम में आई कोंपलें कैसे झूमर की तरह हवा में लहरा रही है, कि कैसे सागौन तीन मंजिला मकान की छत तक आ पहुँचा और कैसे जूही अपनी सुवास का बंदनवार सजाए, हर आने-जाने वाले को एकबारगी पलटकर देखने के लिए मजबूर कर रही है, कैसे छूट जाता है, ये सब और हम उलझे रहते हैं कि जी-20 में क्या हुआ? फीफा में क्या हो रहा है? खाप पंचायतें क्या कर रही हैं? और ऑनर किलिंग पर कोई भी नेता क्यों नहीं बोल रहा है? पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से हमारा घरेलू बजट कितना गड़बड़ाएगा और रसोई गैस की खपत को कम करने के लिए क्या-क्या उपाय करने की जरूरत है? अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं के चले जाने के बाद क्या होगा? नक्सली समस्य़ा को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल क्यों नहीं हैं और क्यों बेकसूर लोगों की जान इनकी आपसी खींचतान में जा रही है? औऱ पाकिस्तान में कब लोकतंत्र जैसा लोकतंत्र आएगा? कैसे ये सब कुछ याद रहता है, बस वही नहीं याद रहता है, जो हमारे बहुत पास, आँखों की ज़द, हथेलियों की पहुँच में उगता-मुरझाता, जागता-मुस्कुराता रहता है, क्यों नहीं दिखता, याद रहता, आह्लादित और तरंगित करता हमें?..... क्या ये वाकई हमारी संवेदनाओं के मरने की शुरुआत है?

1 comment:

  1. , बस वही नहीं याद रहता है, जो हमारे बहुत पास, आँखों की ज़द, हथेलियों की पहुँच में उगता-मुरझाता, जागता-मुस्कुराता रहता है, क्यों नहीं दिखता, याद रहता, आह्लादित और तरंगित करता हमें?..... क्या ये वाकई हमारी संवेदनाओं के मरने की शुरुआत है?

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