Sunday 7 March 2010

अबला और दुर्गा के बीच


महिला दिवस पर सप्लीमेंट निकालने की तैयारी से पहले विभागीय मिटिंग चल रही थी...क्या दिया जा सकता है महिला दिवस पर... सब अपने-अपने विचार रख रहे थे, लेकिन एक बात पर सारे सहमत थे कि सप्लीमेंट में न तो महिला की बुरी स्थिति को लेकर ‘स्यापा’ किया जाएगा और न ही उसकी उपलब्धि को लेकर ‘ढोल’ पीटा जाएगा... कारण साफ है दोनों ही दो विपरित और अतिरेकी ध्रुव हैं और दोनों ही सही नहीं है। इस तैयारी के लिए स्त्री-विमर्श पर अब तक जितना भी पढ़ा गया उसे फिर से खंगाला गया। एक बार फिर यह इत्तेफाक रहा कि फरवरी की हंस का संपादकीय मार्च के पहले सप्ताह में पढ़ा। राजेंद्र यादव धुरंधर बुद्धिजीवी हैं और बहुत सारे मामले में उनसे असहमत होते हुए भी उनकी विचारशीलता और वैचारिक प्रतिबद्धता की कायल हूँ...लेकिन स्त्री विमर्श के मामले में उनकी नीयत को समझ नहीं पाती हूँ... इस बार के संपादकीय में भी उन्होंने इस मुद्दे को छुआ... और इसमें फिर से स्त्री-देह पर जाकर उनकी सुईँ अटक गईं....। अरे भाई जिस दैहिक दासतां के खिलाफ जद्दोजहद की जा रही है, उसमें ही उसे माध्यम कैसे बनाया जा सकता है? यहाँ लड़ाई उसे उसकी दैहिकता से मुक्ति दिला कर उसे व्यक्ति के तौर पर स्थापित करने की है.... खैर.... इस कथित साहित्यिक स्त्री विमर्श का आम स्त्री से कोई लेना-देना नहीं है आम मध्यमवर्गीय महिलाओं की लड़ाई, उसका संघर्ष और उसकी जद्दोजहद... स्त्री-विमर्श नहीं है... स्त्री-विमर्श नामक चिड़िया मात्र साहित्यिक श्रेणी की जुगाली है... यह इससे ज्यादा कुछ नहीं है। साहित्य में स्त्री विमर्श का मामला वैसा ही हुआ कि उसे एक कारा से निकालकर दुसरे पिंजरे में डाल दें.... स्त्री की लड़ाई अपनी दैहिकता से उठ कर मानवीय गुणों से पहचाने जाने की है। उसकी देह और रोजमर्रा में एक ऐसा कारागार है, जो उसे कभी भी मुक्ति नहीं देता... सार्त्र वस्तु के लिए कहते हैं कि – पहले वह होती है, बाद में यह विचार होता है कि वह कैसी है?
वस्तु के लिए तो बाद में यह विचार भी होता है, लेकिन स्त्री के लिए समाज इस विचार की जगह ही नहीं छोड़ता है, यदि वह सुंदर है तो फिर बस वह इतनी ही है... इससे ज्यादा होने पर भी उसे वहीं बंद कर दिया जाता है, क्योंकि समाज के लिए इससे ज्यादा सुविधाजनक और कुछ नहीं होता है। एक बार उसे सौंदर्य का अहसास करा दें फिर वह कुछ होना भी चाहेगी तो नहीं हो पाएगी और यदि वह होगी तो भी पुरुष के किसी काम की नहीं होगी.... आखिर खुद से बेहतर दास किसे पसंद आएगा...। यदि वह बदसूरत है तो फिर वह और कुछ यूँ भी नहीं हो सकती है, क्योंकि उसे उसकी बदसूरती के खाँचे में ही सड़ा दिया जाएगा.... दोनों ही स्थितियों में उसे मानसिक रूप से बीमार बना दिया जाएगा और हाँ खुबसूरती और बदसूरती के सारे मापदंड
पुरुष के बनाए होते हैं... जैसे कि नैतिकता के सारे नियम उसी के हैं। तो फिर उसे मुक्ति कैसे मिलेगी....?
फिर मुद्दा साहित्यिक मुक्ति का नहीं है, हकीकत में ‘मुक्ति’ का है.... रोजमर्रा के शोषण और दलन से मुक्ति का है.... अपने लिए स्थापित मूल्यों से उलट यदि स्त्री व्यवहार करती है तो उसे उसके स्त्रीत्व से ही खारिज कर दिया जाता है, लड़ाई यहाँ से शुरू होती है। हमारी व्यवस्था में उसे या तो देवी के रूप में पूजा जाता है, या फिर कमजोर मानकर उस पर शासन किया जाता है, इन दोनों ही स्थितियों ने स्त्री की सत्ता का जितना नुकसान किया है, उतना और किसी भी व्यवस्था में नहीं हुआ है। हमारी लड़ाई ‘विदेह’ होकर मानव से रूप में स्वीकृत होने की है.... हमारी माँग समानता नहीं न्याय है, हम पूजा नहीं स्वतंत्रता चाहती हैं, प्रशंसा नहीं स्वीकरण चाहतीं है.... हमे सहानुभूति की दरकार नहीं हैं, हमारे होने पर विश्वास हमारी माँग हैं।

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