Thursday 25 March 2010

बुरे से अच्छा हो तो भी मुश्किल..... बदलाव


जीवन में बहु प्रतिक्षित बदलाव आया , लेकिन फिर भी पसरी हुई है गहरी उदासीनता... विचार नहीं, विचारहीनता भी नहीं...मगर कुछ तो है जिसे नहीं होना चाहिए ...। दौड़ थमी, रफ्तार पर ब्रेक लगा, चुनौती मद्धम हो गई...। चाहा हुआ पाया....संतोष होना था, नहीं हुआ...सतह पर काई की तरह जमी हुई है उदासीनता...। कोई बहुप्रतिक्षित परिवर्तन उदासीन कर देगा पता नहीं था। कहीं पढ़ा था - change is not made without inconvenience even from worst to better.... जब असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, तब एक छोटी-सी घटना को कारण बताकर गाँधीजी ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा की तो दूसरे लोगों की ही तरह नेहरूजी ने भी निराश होकर कहा था कि-- इस तरह से होता है दुनिया का अंत...विस्फोट से साथ नहीं रिरियाकर...। कभी-कभी यूँ महसूस होता है कि सिर्फ दुर्घटनाएँ ही एकाएक घटती है, बाकी जीवन सामान्य होता है, बिना उत्तेजना के... रूके हुए पानी की तरह, जिसमें
कभी-कभी बहती हवा... थोड़ा स्पंदन पैदा कर देती है... बस..।
कभी-कभी अपना होना कई सवाल और कई संदेह पैदा करता है। कहीं कोई मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट या फिर कोई केमिकल लोचा जैसा कुछ तो नहीं है?...कुछ भी हो जाए सहजता दुर्लभ ही हो। सृजनात्मकता हो तो भी ऊब से निजात नहीं....ऊब मनचाहा पा लेने से तो असंतोष मनचाहा न मिल पाने से... मनचाहा मिल जाने के बाद भी असंतोष खुद से आँखें नहीं मिला पाने का... कभी-कभी यूँ लगता है कि अपनी मुश्किलों को व्यक्त करने के लिए शब्द तक का अकाल हो गया है... या शायद एक-ही से सवाल... रूप बदल-बदल कर आते रहते हैं... इन दिनों असंतोष कुछ नया नहीं कर पाने का, कुछ नया रच नहीं पाने का.....क्या है, जो लगातार बहता है, लावे की तरह....। इन दिनों एक विचार यूँ भी आता रहता है कि जब एक दिन सबकुछ छोड़कर चल ही देना है तो फिर सारे खटकर्म करने का मतलब क्या है? कुछ पा लिया या कुछ छूट गया... आखिर किसको हिसाब देना हैं... कौन-सा बहीखाता है? घुम-फिर कर वही प्रश्न हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, कुछ भी करने का हासिल क्या है, अर्थहीनता की तीखी चेतना है या फिर खुद के चुके जाने का संदेह...कुछ तो है जो बेचैन किए रहता है। इस बेचैनी का कोई आकार भी नहीं, कोई स्रोत भी नहीं.... कि उसे दुनियावी चिमटे से पकड़कर जीवन से उसे अलग कर दें या फिर उस जगह से
जहाँ से ये बहकर या रिसकर आ रही है, वहीं लगा दें सीमेंट और उसे ही बूर दें...। क्यों है ये जीवन के साथ.... या कि यही है जीवन का अर्थ... कोरी अर्थहीनता.... सब कुछ का एक दिन बेमतलब... बेकार हो जाना.... क्या यही है जीवन?

1 comment:

  1. कभी-कभी अपना होना कई सवाल और कई संदेह पैदा करता है। कहीं कोई मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट या फिर कोई केमिकल लोचा जैसा कुछ तो नहीं है
    ......है बाप...लोचा है....

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