Sunday 14 February 2010

प्रतीकों के बीच गुमा प्रेम


फागुन की गुलाबी-सुनहरी सी सुबह...और रविवार का दिन...हफ्ते भर से प्रेम को लेकर की गई माथापच्ची के बाद आई छुट्टी....। प्रेम को विषय बनाकर उसकी बाल की खाल निकाली.... एंगल ढूँढें ( गोया प्रेम नहीं कोई खबर हो, फिर पत्रकार सिवा एंगेल ढूँढने के और कुछ जानता भी तो नहीं है, उससे न तो इससे ज्यादा की उम्मीद की जाती है और न ही वह इससे ज्यादा करना चाहता है, क्योंकि उसके पास प्रेम-व्रेम जैसी निखालिस भावना को जीने का न तो समय होता है और धैर्य...बाकी चीजें तो खैर....छोड़िए)। कहीं पढ़ा था कि इस दौर में युवा प्रेम नहीं करता, क्योंकि वह दुख नहीं पाना चाहता, अब बताइए प्रेम हो और दुख न हो ये कैसे संभव है तो फिर प्रेम हो ही क्यों? जब प्रेम न हो तो फिर वेलैंटाइन-डे भी क्यों हो? लेकिन इसे तो खैर होना ही था, क्योंकि जो प्रेम नहीं कर पाते, या नहीं करना चाहते हैं, कम से कम यह उन्हें प्रेमजन्य खुशी दिलाने का आभास तो देता ही है, क्योंकि ढ़ेर सारे प्रतीकों के बीच कहीं न कहीं यह गफ़लत पल ही जाती है, कि हाँ यही प्यार है।
दरअसल हम प्रतीकों के दौर में जी रहे हैं। फूल, हीरा, कैंडल-लाइट डिनर, सरप्राइज पार्टी, गिफ्ट, बुके, कार्ड और भी पता नहीं क्या-क्या प्रेम के प्रतीक, धर्म के प्रतीक मंदिर, मस्जिद, गुरु-उपदेशक, कर्मकांड और भी बहुत कुछ, हमारे समाज में हर जीच के प्रतीक हैं, साम्प्रदायिकता के, धर्मनिरपेक्षता के, आध्यात्म के, क्षेत्रियता और अखंडता के सब चीजों के प्रतीक हैं, क्योंकि ये ज्यादा सुविधाजनक हैं। हर तरफ प्रतीक ही प्रतीक... बस नहीं है तो मूल भावना...क्योंकि उसके बिना भी हमारा काम बहुत आराम से चलता है।
प्रेम चाहे हो या न हो वेलैंटाइन-डे आपको उसके प्रदर्शन करने का अवसर देता है, और बिना अहसास के आप प्रेमी हो जाते हैं, दरअसल यह एक आसान रास्ता है, इस जमात का हिस्सा होने का, इसमें आपका कोई योगदान नहीं है, न उन अनजान संत वेलैंटाइन का, सारा किया कराया बाजार का है। आप हैं उसके आसान टारगेट... बाजार तो ढूँढता ही रहता है टारगेट पीपल....आज आप है कल कोई ओर होगा, आज यह दिन है कल कोई ओर दिन होगा। इस बार वेलैंटाइन-डे पर मीडिया ने ज्यादा हंगाना नहीं किया, क्योंकि उसके पास इससे भी ज्यादा हॉट स्टोरी थी, बाल, राज और उद्धव ठाकरे हैं, शरद पँवार है, शाहरूख खान है और है उसकी फिल्म और बचा-खुचा कोटा पूरा किया पुणे बम ब्लास्ट ने...हाँ प्रिंट के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे और दुर्भाग्य से रविवार का दिन था तो एक सप्लीमेंट में तो वेलैंटाइन के अतिरिक्त और कुछ जा ही नहीं सकता, भई बाजार की माँग जो हैं।
इस मरे वेलैंटाइन ने प्यार जो नहीं है, उसे वह बना दिया है, और यह जो है, उसे पता नहीं कहाँ गुमा दिया। प्यार एक बहुत व्यक्तिगत और गोपनीय भावना है, जो खुद से भी नहीं कही जाती है, कम से कम हमने तो यही जाना है, यह भी सही है कि पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकते हो, लेकिन उसे दुनिया को बताया तो जाता ही नहीं है। यह शब्द नहीं है, लेकिन बाजार ने उसे महज शब्द बना दिए हैं। प्यार अनिर्वचनीय है, लेकिन यहाँ तो तमाम प्रतीकों से इसे वर्णनीय बना दिया गया है। इस दौर ने प्रतीकों को अहम बना दिया है और इसके पीछे की भावना को कहीं उड़ा दिया है। प्यार के लिए एक दिन... कितना हास्यास्पद है, जो जीवन है, उसके लिए एक दिन...! क्या भेड़ चाल है। इसे किसी भी दिन कहो, दिल एक जैसा ही धड़कता है, डर भी वैसा ही लगता है। तो फिर एक विशेष दिन क्यों हो... यदि प्यार किया है तो कोई भी दिन हो, क्या फर्क पड़ता है।
तो उनके लिए जिन्हें प्यार को महसूस करने, व्यक्त करने और जीने के लिए किसी वेलैंटाइन-डे की जरूरत है, उन्हें हैप्पी वेलैंटाइन-डे और उनके लिए जिनके लिए प्यार ही जीवन है, पूरे जीवन के लिए ढेरों-ढेर शुभकामनाएँ....क्योंकि प्यार प्रतीकों के सहारे नहीं किया जाता है, प्यार हो जाता है....यह होता है, बस....।

2 comments:

  1. हम प्रतीकों के दौर में जी रहें हैं.....बहुत ख़ूब....

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  2. main gya ek din yun hi bajar ko
    tangte log bahr jhan pyar ko
    koi aaye khride yhan pyar ko
    khob becha khrida gya pyar ko
    dr.vedvyathit@gmail.com
    http://sahityasrajakved.blogspot.com

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