Tuesday 1 December 2009

तस्वीर-सा सुंदर गोवा....


गतांक से आगे
जब हम हुए समंदर के पड़ौसी


इस बार सोच ही लिया था कि कुछ भी हो जाए समंदर को रखेंगे आँखों के सामने....खुशकिस्मती कि जगह मिल भी गई ऐसी...बीच पर ही मिली एक कॉटेज....यहाँ दिन के किसी भी पल में समंदर अपने होने को भूलने नहीं देता है। जैसे-जैसे रात गहराती है उसका जोश उफान पर आने लगता है और उसे देखकर उसके आसपास रहने वालों का भी....दिन भर समंदर के साथ मस्ती करते रहने के बाद भी थकान का नामोनिशान नहीं होता और शाम होते-होते ही बीच जश्न की तैयारियाँ शुरू कर देता है। हर ओर मदहोश कर देने वाली मद्धम रोशनी....हल्का संगीत लहरों के संगम और हवाओं की शहनाई के बीच पक्षियों का वोकल....कुल मिलाकर नशा....काजू फैनी से भी ज्यादा नशा....होता है। देर रात तक बीच पर हलचल....कोई पानी में ही, कोई किनारे पर बैठा है...तो कोई आती-जाती लहरों के साथ गीली हुई रेत के बिस्तर पर टहल रहा है। रेत पर फैलता-सिकुड़ता पानी.....आती हुई तेज लहर से लौटती थकी हुई लहर का टकराना और उससे पैदा हुआ संगीत....क्या है ऐसा जिसे छोड़ा जा सकता है?
सुबह-सुबह पूर्व दिशा से नारियल के पेड़ों के पीछे से निकलता सूरज समंदर के कैनवॉस पर कई रंग बिखेर जाता है और वो....वो इस सबसे बेखबर कर्मरत योगी की तरह बस अपना काम करता जाता है। सूरज जब उसके बिल्कुल उपर अपना अक्स समंदर के आईने में देखता है उस समय....उसमें मौज करने वाले पानी में उतर चुके होते हैं...। सूरज की किरणें लहरों के टकराने से उछलती बूँदों पर पड़ती है तो यूँ लगता है कि समंदर में असंख्य हीरे की कनी बिखरी हुई है। साफ...खारा पानी...जैसे-जैसे गहरे में जाओ लहरों का वेग हमें किनारे की ओर फेंकता जाता है। दिन चढ़ते-चढ़ते सूरज के तेज और समंदर के आवेग के बीच संघर्ष होने लगता है....यदि आप समंदर के साथ है तो वह आपको हारने नहीं देगा...लेकिन यदि आपने उसका साथ छोड़ा तो सूरज आपको बैठने नहीं देगा.....देर तक कोई-न-कोई तो समंदर के साथ बना ही रहता है।

शाम को जब सूरज समंदर की आगोश में ही सोने जाता है जब यूँ लगता है कि यहाँ पानी नहीं चाँदी का वरक फैला हुआ है और कहीं से भी जरा-सी रोशनी पड़ी नहीं कि वह झिलमिलाने लगता है। बीच का दिन तो शाम से जवान होना शुरू होता है। हर कहीं मद्धम रोशनी और हल्के संगीत के बीच सुरूर के लिए जाम लिए पर्यटक किनारे बने रेस्टोरेंट में बैठे हुए दिन भर की थकान को नशे से धोते हुए लगते हैं। देर रात तक बीच पर पार्टी चलती रहती है। अँधेरे में पानी तो दिखाई नहीं देता बस सुनाई देती है उसकी आवाज... आधी रात को भी यदि समंदर को देखने पहुँचो तो कोई न कोई वहाँ बना हुआ मिलता है...। दिन भर में 8 से 10 फीट पीछे जाता पानी चाँद दिखने पर फिर से अपने शबाब पर आ जाता है और किनारे को भरने का प्रयास करता है....रात में जब सब कुछ ख़ामोश हो जाता है तब....समंदर अपने पूरे उफान पर आता है...उस दिन जब आँखें मलते-मलते सुबह पाँच बजे बीच पर पहुँचे तो एकबारगी लहरों के शोर से दिल जोर से धड़क गया...डर-सा लगा....फिर धीरे-धीरे सूरज के निकलने पर समंदर का सौंदर्य निखरने लगा और डर....वो जाता रहा।
सोचा था कि समंदर के पड़ौसी होकर हम उसे जान पाएँगें...लेकिन कौन किसी को जान सका है....फिर चार-छह दिन में वह भी प्रकृति के इस विस्तार को....नहीं जान सके और प्यासे ही हमें लौटना पड़ा।


वैश्विक गाँव: पलोलेम
यहाँ पर्यटक विदेशों इस्त्राइल, रोमानिया, इटली, जर्मनी, अमेरिका और इंग्लैंड कहाँ से नहीं आए हुए थे। तो व्यापार करने के लिए देश के हर कोने के लोग मिले....राजकुमार मनाली से, सुनील नैनीताल से, तनवीर कश्मीर से, शर्मा परिवार दिल्ली से, एजाज लखनऊ और विनयप्रताप सिंह भोपाल से तो कमाल बिहार से व्यापार करने के लिए पलोलेम आया है। कुछ लोग तो ऐसे भी मिले जो सीजन के 6 महीने गोवा में और फिर पहाड़ों के सीजन में मनाली या फिर लद्दाख पहुँच जाते हैं। यहाँ बीच, काजू फैनी, उन्मुक्तता और नारियल के पेड़ों के अतिरिक्त यदि कुछ गोवन था तो वह सी-फूड....मछली और प्रॉन....लेकिन खालिस वैष्णवों को वेज फूड ढूँढ़ने में खासी मशक्कत करनी पड़ी...फिर पीना नहीं है तो कोई भी पार्टी आपके लिए नहीं है। खैर साहब....यहाँ तो मामला प्रकृति के सौंदर्य के बीच खुद के पास होने का था, इसलिए ये तो कोई मसले नहीं थे....।
आने के बाद दो दिन बीत गए....कपड़ों और सामानों से अब भी रेत झर रही है, पैरों में लहरों का आवेग अब महसूस होता है....रात को समंदर का हरहराना और दिन भर कौवों की काँव-काँव अब भी सुनाई देती है। दो मंजिला मकान की बॉलकनी यहाँ भी मचान पर बनी हट का भ्रम देती है। पहाड़ों और समंदर को छोड़कर आने के बाद भी इस पठार में उसकी हरारत महसूस हो रही है। बस यहाँ का मौसम भी यदि वहाँ पर्यटन पर चला जाता तो उस जगह से लौटना वाकई मुश्किल होता....सही है कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता....बस...।

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