Friday 20 November 2009

१० दिन के लिए अर्धविराम....!


मावठा रूका तो....धूप का हाथ पकड़कर गहरी खुनक साथ चली आई...तब से धूप और खुनक दिन भर आँख मिचौली खेलती रहती हैं और शाम होते-होते धूप तो थक कर घर चली जाती है, लेकिन खुनक रात होते ही जवान हो जाती है....। मन रूखा-रूखा बना हुआ है, कितनी ही कोशिश की उसे मनाने की, लेकिन उसका रूखापन बरकरार है, आखिरकार सारी कोशिशें ही छोड़ दी और लग गए तैयारी में.... आखिर घूमने जो जाना है.....कुछ दिन खुद के साथ....सब कुछ को छोड़कर प्रकृति के राग-रंग, आमोद, सृजन और गीत को सुनने-देखने और उसी में डूब जाने के लिए, आखिरकार शहर में रहकर यही तो नहीं मिलता है। कुछ दिन....हाँ शायद हफ्ता दस दिन दुनियादारी से दूर खुद को प्रकृति की संगत में रखकर देखें तो शायद हर दिन की दौड़..... और कड़ुवाहट से सामंजस्य करने की ताकत पाएँ.....बस इतना ही... लौट कर कुछ 'मैं' और कुछ गोआ के अनुभवों के साथ फिर होऊँगी आपके सामने तब तक के लिए....बाय....।

Saturday 14 November 2009

कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता


नवंबर में अगस्त सी बारिश हो रही है। पिछले पाँच छः दिनों से लगातार यूँ लग रहा है जैसे बारिश का ही मौसम हो.....। अमूमन इस महीने दीपावली होती है, लेकिन इस बार दीपावली-दशहरे से फारिग हो चुके लोगों को नवंबर ने सावन जैसी सौगात दी। गीला-गीले से दिन पर रूमानी-सी रातों के इस दौर में जब खिड़की के उस ओर मौसम का शहद रच-रचकर रिस रहा हो....छुट्टी भी हो (कारण कुछ भी हो, बीमारी ही सही) तो क्या उसे हथेलियों में समेट लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए....? लेकिन नहीं हुई....। मावठा है....लेकिन क्या एक सप्ताह तक लगातार गिरते देखा है कभी...फिर अगहन में.... पौष में गिरता है, माघ में गिरता है, लेकिन इस माह.... प्रकृति को भी उच्शृंखलता सूझती है कभी-कभी.... किस मौसम के आने का समय हो और कौन आ टपके बिल्कुल सरप्राइज...खैर यही तो बदलाव है...खुशी है, जीवन है वरना इस दुनिया में रखा क्या है?
पारदर्शी शीशों वाली बड़ी-सी काँच की खिड़की के उस ओर आसमान उमड़ रहा है हम वाइरल के लिहाफ में दुबके उस शहद से रिसने को नहीं झेल पाने के दुख के साथ बेसुध पड़े हैं। पोर्च का झूला....कॉफी का कप... सुरीली बंदिशें या फिर मीठी गजलें....सब कुछ हो सकता था, लेकिन कुछ नहीं है। हवा में उड़ा-उड़ा सा तन है और भाँग की हल्की-सी खुनक में डूबा सा मन है, जिसमें कुछ भी नहीं चल रहा था और कुछ भी नहीं हो रहा था। बस मौसम यूँ ही गुजर रहा था और हम उसकी तरफ पीठ कर सो रहे थे.....सच ही तो है कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता....कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता। कारण कुछ भी हो....बीमारी हो.... चाहे तो किस्मत ही कह लें.....आखिरकार जब सवाल हो और जवाब न हो तो ईश्वर और सब कुछ करने के बाद भी मनचाहा न हो तो....जी हाँ किस्मत है...।

Sunday 8 November 2009

...कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारों...


एक बड़े शहर में रहने के अपने सुख और अपने दुख हैं....कह सकते हैं कि कोई भी सुख निरपेक्ष नहीं होता है या फिर बहुत आशावादी हैं तो यूँ भी कह सकते हैं कि दुख अपने साथ कोई-न- कोई उपहार लेकर आता है...कोई फर्क नहीं अलबत्ता....। हाँ तो एक साफ सफेद छुट्टी पर सामाजिकता निभाने की कालिख लगा दिन उगा... अब चूँकि छुट्टी के दिन घर से निकलना ही है तो क्यों नहीं बकाया दो-तीन काम भी हाथ के साथ कर लिए जाए, यही सोचकर घर से जल्दी निकले और इत्तफाक यूँ कि दोनों ही काम समय से पहले पूरे हो गए और आयोजन शुरू होने में घंटा आधा घंटा बचा हुआ है.....अब इस समय को कहाँ बिताएँ...तभी रास्ते में मॉल दिखा.... चलो समय काटने का इंतजाम तो हो ही गया.... मॉल इसके सिवाय और किस काम आएँगें?
पता नहीं अभी तक वहाँ क्यों नहीं पहुँच पाए कि मॉल से कुछ खरीदा जाए...जब कभी इस विचार के साथ वहाँ गए....एकाएक खुद में बसा कर्ता भाव लुप्त हो जाता और निकल आता दृष्टा.....और जब वो देखता है तो बड़ी हिकारत से....कि अरे! तुम्हारे इतने बुरे दिन आ गए हैं कि तुम यहाँ से खरीदी कर रहे हो?(खैर ये आज का सच है भविष्य के लिए कोई दावा नहीं है।) तो किसी भी सूरत में मॉल से खरीदी करने की कभी हिम्मत ही नहीं जुटा पाए। तो समय काटने के उद्देश्य से उस लक-दक मॉल में घुस गए.... वहाँ जगह-जगह युवाओं को खड़े और बातें करते देखते हुए एकाएक उनपर दया आई और सहानुभूति भी हुई..... लगा कि शहर में रहने वाले युवा कितने बेचारे हैं....एकाएक मिरिक (दार्जिलिंग) में झील के किनारे चीड़ के पेड़ों के बीच धमाचौकड़ी करते बच्चों को देखकर सतह पर आ गई ईर्ष्या की याद उभर आई......लगा कि ये युवा साधन संपन्नता में क्या खो रहे हैं, नहीं जानते.....। वे महँगे परफ्यूमों और डियो की तीखी या भीनी खुश्बू तो बता सकते हैं, लेकिन रातरानी, जूही और चमेली का रात में गमकना....रजनीगंधा का भीगा-भीगा सा भीनापन और केतकी की पागल कर देने वाली खुश्बू को नहीं जानते हैं, वे तोहफे में जरूर एक दूसरे को बुके देते होंगे, लेकिन डाली पर लगे गुलाब के सौंदर्य को उन्होंने शायद ही देखा होगा। वे एसी के सूदिंग मौसम में काम करते हैं, लेकिन पौष की सर्द रात और उसमें गिरते मावठे के मजे से शायद ही वाकिफ हों.... वे नहीं जानते जेठ की तपन का मजा और भादौ की घटाघोर में भीगने का आनंद क्या है?
महँगे म्यूजिक सिस्टमों और आईपॉड में बजते पसंदीदा सुलभ संगीत से तो वाकिफ है, लेकिन अलसुबह पंचम सुर में गाती चिड़ियो...... खूब ऊँचाई से गिरते झरनों का गान और आसमान के खुले हुए नलों से आती बौछारों की ध्वनि का मतलब शायद ही जानते होंगे। मॉल की लकदक रोशनी को तो जीते हैं, लेकिन पूरे चाँद की रात की चादर पर पसरी मादक चाँदनी के जादू और रहस्य का मजा शायद ही कभी पाते हो....कितना अजीब है ना, जो हमें सहज ही में हासिल है, वो लगातार दुर्लभ हो रहा है.....और इसे हम तरक्की समझ रहे हैं। हम जिसे वरदान समझ रहे हैं, दरअसल वहीं जमीन से कटने की सजा है। ये तो मात्र छोटे संकेत हैं, लेकिन इसके पीछे का संदेश बड़ा अर्थवान है। एक बार यूँ ही कहीं बातों-बातों में मुँह से निकल गया था कि पूरी दुनिया से क्रांति की संभावनाओं का अंत हो चला है। बहुत दिनों तक अनायास निकली इस बात की जड़ों को टोहती रही थी, लेकिन सिरा नहीं पकड़ पाई थी। तभी गोर्की की माँ पढ़ते हुए उसकी जड़ से साक्षात्कार हुआ था, उसमें लिखा था कि---
अगर बच्चों के खाने में ताँबा मिलाते रहो तो हड्डियों की बाढ़ मारी जाती है, लेकिन किसी आदमी को सोने का जहर दिया जाता है, तो उसकी आत्मा बौनी रह जाती है-टुच्ची, गंदी और बेजान, रबर की उन गेंदों की तरह जो बच्चे पाँच-पाँच कोपेक में खरीदते हैं।
इसी के साथ एक शेर याद आया....हमेशा की तरह शायर का नाम याद नहीं आ रहा है, फिर भी ये शेर आज के युवाओँ के लिए मौजूं है----मिली हवाओं में उड़ने की वो सजा यारों/ कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारों..... तो आज बस इतना ही....।