Friday 24 July 2009

हम एक जादू में रहते हैं

हालाँकि सारे अनुमान ये कह रहे थे कि हमारे शहर में सूर्य ग्रहण बादल और बारिश की वजह से नहीं दिखाई देगा.....लेकिन मात्र क्षीण सी संभावना का सिरा पकड़ कर सुबह 6 बजे का अलार्म लगाया था....वह बजा भी, लेकिन जैसा कि अंदेशा था घने बादलों के बीच सूरज तो बहुत दूर... उसकी किरणें तक दिखाई नहीं दे रही थी....थोड़ी ही देर में सुबह को फिर अँधेरे ने अपनी आगोश में ले लिया और हमने कल्पना की 1996 के उस सूर्य ग्रहण की जो पूरा था और उस शहर से देखा था, जो उसके दिखने की पट्टी पर स्थित था....। आसमान के विराट हल्के नीले कैनवास पर दो गोल-गोल से पत्थर बहुत धीरे-धीरे एक दूसरे की ओर बढ़ रहे थे और फिर..... आँखों को सायास झपकने से रोका..... गोल लेकिन छोटा पत्थर बड़े और चमकीले पत्थर पर छा गया...... बस उस छोटे से पत्थर की ओट से बड़े पत्थर का जो हिस्सा नजर आया...... वह अदभुत.... अलौकिक और जादुई था....और स्टिल हो गया हमेशा के लिए। हम उसे चाहे जो नाम दे दें.... डायमंड रिंग चाहे तो वह भी....। यूँ ये सूर्य ग्रहण बरसों बरस में आता है.... शायद इसे लेकर उत्सुकता और उत्साह ज्यादा होता है, लेकिन कभी सारी दुनियादारी को एक सिरे पटककर सोचे तो पाएँगें कि हम एक अलौकिक जादू भरी दुनिया में रहते हैं और हर लम्हा उस जादू को जीते हैं, भोगते है..... फिर भी कभी हमारा ध्यान उस तरफ नहीं जाता..... माँ की तरह हम उसे भी टेकिंग फार ग्रांटेड ही लेते हैं.... जी हाँ प्रकृति का जादू.... सुबह का दोपहर...शाम और रात में बदलना.....बीज का पौधा और फिर पेड़ बनना....कली... फूल और फल आना..... नदियों का बहना.... समंदर का हरहराना.....बादलों का आना छाना और बरसना..... गरजना.... बिजली का तड़पना...और हाँ इंद्रधनुष तनना.... फूलों का खिलना.... चिड़ियों का चहचहाना....क्या है जिसे हम जादू के अतिरिक्त कुछ और कह सकते हैं? ऐसे में सवाल उठता है कि इसी जादूभरी दुनिया में छल-कपट, झूठ, हिंसा, अनाचार, अत्याचार, गरीबी और बेबसी सब कहाँ से आ गई?
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बहुत साल पहले यूँ ही एक बहस हुई थी... प्रकृति को लेकर....क्या प्रकृति कारण और परिणाम का श्रृंखला है? या फिर यह एक यांत्रिक व्यवस्था है... जिसमें घटना और दुर्घटना फीडेड है हम तब अचंभित होते हैं, जब वह हमारे सामने आती है, इसके पीछे कोई तार्किकता नहीं है....ये बस होती है और जब हो जाती है तब हम इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करते है, गोयाकि लकीर पीटते हैं.... बहुत देर तक या यूँ कहूँ कि बहुत दिनों तक चली तो बहुत अतिश्योक्ति नहीं होगी... सब अपनी-अपनी मान्यताओं पर अड़े रहे, लेकिन निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे.... फिर भी एक बात पर सब सहमत थे कि प्रकृति एक जादू है... और हम इस जादू में रहते हैं। हम इसे जादू और नशा दोनों ही कह सकते हैं।
और अंत में सावन..... हम मौसम दर मौसम मौसमों का इंतजार करते हैं, खासकर वसंत और बारिश का और बारिश में भी खासकर सावन का...क्योंकि यह खालिस नशा है.... शब्दों से परे है इसका होना और इसका अभिव्यक्त होना...। यहाँ हिंदी फिल्म का एक गीत याद आ रहा है
शराबी-शराबी ये सावन का मौसम
खुदा की कसम खुबसूरत ना होता
अगर इसमें रंगे मोहब्बत ना होता
यकीन ना करें तो मोहब्बत करें और फिर सावन को जिएँ... यकीन आ जाएगा।

Tuesday 21 July 2009

लम्हा-दर-लम्हा जीने का मौसम




नींद की चाशनी को आसमान से बरसती बूँदों ने धो दिया... आ खड़े हुए सावन के मंडवे तले। अदरक घुली, भाप उड़ाती गर्म चाय और पार्श्व में बज रही ठुमरी--घिर-घिर आई बदरिया कारी... नहीं यह ना तो किसी कहानी का हिस्सा है और न ही किसी विजुअल का....ये जीने के मौसम का दस्तावेज है। रात के अँधेरेपन में सुबह की सफेदी घुलने लगी थी, लेकिन प्रपोशन थोड़ा गड़बड़ा गया और सुबह उजली होने की बजाय थोड़ी साँवली ही रह गई। फिर तो यह साँवली-सी सुबह घर में मेहमान बन कर आ गई... जिस कोने में भी देखो मौजूद मिली। आसमान से ओस की बूँदों सा सावन बरस रहा है, इस मौसम में छुट्टी लेने का मकसद तो कुछ पढ़ना, कुछ लिखना और कुछ सुनना था, लेकिन छिटपुट कहानी पढ़ने और लिखने के लिए माहौल बनाने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं पाया।
हाल ही में कहीं पढ़ा था कि या तो आप अच्छा लिख लें या फिर अच्छे से जी लें। अच्छे से जी कर अच्छा लिख भी लें ऐसा संभव नहीं होता है, इस पर बहुत लंबी बहस हुई तो एक सवाल और खड़ा हो गया कि क्या ज्यादा जरूरी है? अच्छा लिखना या फिर अच्छे से जीना.... सवाल थो़ड़ा पेचीदा है, क्योंकि यदि कोई दोनों ही करना चाहे तो....? यदि आपके पास इस सवाल का जवाब है या फिर दूसरी पहेली का हल है तो फिर मुझे दोनों की ही बहुत जरूरत है। फिलहाल तो सावन है, बूँद-दर-बूँद भर रहा जीवन का प्याला है और नहीं है तो कुछ भी नहीं छूटने का मलाल.... तो बस कभी-कभी मौसम का इंतजार जीवन को हरा-भरा करने के लिए भी किया जाता है।
शेष शुभ

Tuesday 14 July 2009

सावन आनंदमय हो


बड़े दिनों बाद पूरी और बहुप्रतिक्षित छुट्टी.....परेशानी के उग आए छालों को साफ करने के बाद के जख्म.....। मौसम की मिठाई और मन की खटाई मिलकर गुजराती स्वाद रचती सुबह आई थी। रात की रिमझिम का हैंगओवर सुबह तक बना हुआ था। ताजा नहाई हुई सुबह का साँवला चेहरा आकर्षित कर रहा था। मिट्टी की नमी से दुर तक मन की जमीं भी नम हुई जा रही थी.... मन को साधने और मौसम के साथ कदमताल करने की कोशिशें चल रही थी.... चाहत तो थी कि मूड का उखड़ापन कुछ कम हो जाए.... सावन का रूप रंग गहरे उतर जाए....। बरसात में फूल आई दीवार सा मन हो रहा था, इसलिए ऐलान कर दिया था कि आज कोई ऐसी बात ना हो जिससे मन की दीवार की पपड़ियाँ निकलने लगे तो सारे जतन उसी दिशा में हो रहे थे.....।
समय तेजी से भाग रहा था और हम उसका सिरा पकड़े उसके चारों कोनों को तानने की कोशिश कर रहे थे...चाहा तो था कि उसे तंबू की तरह तान लें और मनमौजी हो जाए....लेकिन एक कोने को थामे तो दूसरा सिकु़ड़ रहा था...आखिर कोशिश ही छोड़ दी। चैन किसी भी सूरत नहीं था।
चचा ग़ालिब हर जगह आ खड़े हो जाते हैं यहाँ भी आ गए।-- अब तो घबरा के ये कहते है कि मर जाएँगें, मर के भी चैन ना आया तो किधर जाएँगें।
लेकिन सावन आया है.... सुबह का साँवलापन ढ़ेर सारे रंगों से सजकर चुपके से आता है..... काली घटाएँ जब बरस कर रीत जाती है तो यूँ लगता है कि सुनहरी सुबह फिर आ गई हो...प्रकृति के श्रृंगार का उत्सव है। आँगन में चंपा और गुलाब सुबह से महकने लगते है तो गुलमोहर भी अभी थका नहीं है। सागौन के बड़े-बड़े पत्ते हरिया रहे हैं। रात में चमेली और जूही गमकने लगती है। बोगनबेलिया तो खैर सदाबहार है ही। कितने रंग सुबह से शाम तक आते और झिलमिलाते हैं। मन की सारी धूसरता सावन की रिमझिम में धुल कर बह निकली....। बहुत कुछ बहता aऔर उमड़ता है मन में लेकिन क्या करें समय का इलेस्टिक सिकुड़ता ही जा रहा है, फिर भी जो दिखता है वह मन में उतरता तो है ही। तो सावन की उदार हरियाली सबको सुंदर करें, मन मयूर हो और हरदम सावन मनें, इसी कामना के साथ सावन आनंदमय हो।

Tuesday 7 July 2009

नैनीताल पर शब्द-चित्र

मेरी कवितानुमा तुकबंदी को सराहने के लिए शुक्रिया.....इसे मैं हौसला अफजाई ही मान रही हूँ बिल्कुल ऐसे जैसे पहले-पहल स्कूल में सीखी कविता को सुनाते बच्चे का हौसला बढ़ाते घर आए मेहमान हो और उस पर तुर्रा यह है कि आपने एक कविता सुनी....सुनकर ताली बजाई तो सुनिए एक और कविता....। इस बार दो साल पहले सुबह-सुबह जब काठगोदाम से नैनी झील के किनारे पहुँचे तो जो कुछ देखा उसने खुद-ब-खुद शब्द चुन लिए और....जो बना वह सामने है....यहाँ जिक्र चिनारों को है, लेकिन चित्र नैनी झील का है...इसके लिए पाठक क्षमा करेंगे।
नैनीताल
कतारों में चिनार
या फिर
चिनारों की कतार
नैनी झील के उस पार
चीड़ों के पहाड़ में से
झाँकती है
जीवन की चाँदनी
आसमान के आँचल पर
धूप-बादल के खेल
अलमस्त होकर आते
बरसते और बिखरते बादल
हम मैदानियों के
लिए प्रकृति का
अनुपम चित्र बनाते..
क्या ये कविता है?

फिर सेः कविता लिख पाने का कोई मुगालता नहीं है, ये बस कभी यूँ ही भावना की उमड़न का नतीजा है।

Thursday 2 July 2009

कविता सा कुछ कहने की हिमाकत

यूँ ये मेरा माध्यम नहीं है...ना छंद की समझ है और ना ही मात्राओं की....। पुरानी डायरी के किसी पन्ने में एकाध निराश से क्षण की तरह कभी कोई कविता मिल सकती है, इससे ज्यादा इस दिशा में मैंने कभी कोई हिमाकत नहीं की। और आज भी इसे कविता कहने की हिमाकत नहीं कर सकती, यह मात्र तुकबंदी है जो रात के अचेतन पहर में कड़ी दर कड़ी जुड़ती गई।
रात के बिल्कुल बीचोंबीच जब बारिश की बड़ी-बड़ी और लगातार गिरती बूँदों की आवाज से नींद खुली तो दिमाग का सारा कूड़ा सतह पर आ जमा हुआ....बहुत देर तक जोर से आँखें मींचे बारिश के होने को नकारते रहे, उस संगीत की तरफ से कान भी बंद कर रखे....जो शायद दुनिया की पहली कंपोजिशन में से एक रहा होगा और आज भी उतनी ही ताजातरीन, दिलकश और शुद्ध है जितना पहले था....लेकिन शायद इसे ही प्रेम कहते हैं कि ज्यादा देर उसकी पुकार को अनसुना नहीं कर सके और बाहर निकल ही आए...। आसमान जैसे फट पड़ने को आतुर था..... लाल-धूसर बादलों का जमावड़ा...गहरे अँधेरे में बूँदों का गिरना तो नहीं दिख रहा था, लेकिन फुहारें सहला रही थी....नींद चाले चढ़ चुकी थी और उस कूड़े में से कुछ काम की चीजें निकलने लगी थी। कुछ विचार और कुछ भावनाएँ उभर आई थी....। पता नहीं कहाँ से ये तुकबंदी निकल पड़ी।
बेटियाँ
ना जाने कहाँ से आ जाती हैं ये
कुछ ना हो फिर भी खिलखिलाती हैं बेटियाँ
ना प्यार की गर्मी और ना चाहत की शीतलता
फिर भी जीती जाती हैं बेटियाँ
अभावों और दबावों के बीच भी
दिन के दोगुने वेग से बढ़ती जाती है बेटियाँ
भीड़ भरे मेले में हाथ छूट जाए
फिर भी किसी तरह घर पहुँच जाती हैं बेटियाँ
खुद को जलाकर भी
घरों को रोशन करती जाती हैं बेटियाँ
सीमाओं के आरपार खुद को फैलाकर
पुल बन जाती हैं बेटियाँ
शायद इसकी सजा पाते हुए
कोख में ही मारी जाती हैं बेटियाँ.....।