Tuesday 23 June 2009

तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए

दोस्तों,
पिछली पोस्ट पर आई टिप्पणियों के लिए धन्यवाद....। दरअसल इन सवालों को सही संदर्भों में समझा नहीं गया। आशा-निराशा जैसे नितांत भौतिक दुनिया के भावों से इन प्रश्नों का दूर से भी वास्ता नहीं है। हम कर्म करने के लिए अभिशप्त हैं....इसे किसी भी रूप में कहें प्रकारांतर से मतलब इनका वही होगा, लेकिन यह अभिशाप भौतिक या कह लें स्थूल दुनिया का तथ्य है...यहाँ के सच भी बड़े उलझाने वाले और सापेक्ष होते हैं। दरअसल ये एक समानांतर दुनिया है। कभी इसकी आँधी से हम बेचैन हो जाते है तो कभी हम ही इसके आकर्षण में बँधे हुए वहाँ पहुँच जाते है। उस दुनिया के सारे प्रश्न हमारी दुनिया में घुसपैठिए हैं। जरा सी दरार दिखी कि घुस आए...। अंदर आने के बाद ये अंतर में ऐसी भट्टी सुलगाते हैं कि उसकी तपन सही नहीं जाती है, लेकिन जो सह लेता है, वह भटकाव के सच को जान लेता है और कुंदन होकर निकलता है...उसे आध्यात्मिक दुनिया में स्थिरता.... संतत्व की प्राप्ति होती है.... वह किनारे बैठ कर निरंतर दौड़ने वालों की निरर्थक कवायद को निर्विकार भाव से देखता रहता है। वह सारी दौड़ और प्रतिस्पर्धा से बाहर आ जाता है... और सदा शांति की स्थिति में रहता है....लेकिन यह रास्ता बीहड़ है और इसमें मन को साधना पड़ता है। मन जो हवा की तरह चंचल है, जिसे साधना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है उसे साधने से कम यहाँ कुछ नहीं चल सकता है। हम तो भटकते-भटकते यहाँ पहुँचे हैं और जल्द ही यहाँ से घबराकर निकल भी जाएँगें.... लेकिन फिर आएँगें क्योंकि ये हमारी दुनिया के अब्सर्ड और इसका अर्थहीन होना हमें फिर यहाँ ले आता है। इसलिए ये आशा-निराशा से आगे के प्रश्न हैं। दोस्तों जिनका वास्ता इन प्रश्नों से नहीं है वे इस आग से दूर रहें....( ये अलग बात है कि दूर रहना ना रहना आपके बस की बात नहीं होती है) ये विषबीज है जो किसी-किसी में ही होता है और यदि होता है तो जरा सी अनुकूलता पाते ही विकसित भी होने लगता है.....। लेकिन वे सौभाग्यशाली है जिनमें यह विषबीज नहीं है। उनके लिए ये प्रश्न... ये सारी कवायद बेकार है वे ही इसे भौतिक दुनिया के कसौटी पर कसते हैं....उनके लिए एक शेर है (फिलहाल शायर का नाम नहीं याद आ रहा है)
खुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए


शेष शुभ...

Friday 19 June 2009

बैठो! कहीं जाना नहीं है

मन और मौसम दोनों की ही गिरह उलझी पड़ी है। दोनों की ही तरफ से कोई राहत नहीं....मन मौसम की तरह ही तप्त हो रहा है और मौसम है कि अपनी गाँठ खोलने के लिए ही तैयार नहीं है। ठहरना चाहना समय की रफ्तार में बहने लगा है...। हम पहले समय के साथ कदम मिलाने की और फिर उसे पकड़ने की एक बेकार सी कोशिश में लगे हुए हैं। कहाँ जाना है..क्या पाना है और क्यों पाना है जैसे सवाल कभी-कभी ही सिर उठाते हैं.... फिर डूब जाते है जद्दोजहद में....। कभी घड़ी-दो-घड़ी खुद के साथ बैठे तब सवाल आकर इर्द-गिर्द डेरा डाल देते हैं.....लेकिन उसके लिए भी इतनी राहत नहीं है घड़ी को थामने की बेतुकी सी कोशिश में ही दिन पर दिन गुजर जाते हैं। कभी-कभी ही खुद के पास आकर बैठ पाते हैं। एक अंतहीन और अर्थहीन दौड़.... उसका हिस्सा.... कभी खुद तो कभी मजबूरन....सार्त्र के शब्दों में हम पैदा होने के लिए अभिशप्त है..उसी तरह हम दौड़ का हिस्सा होने के लिए भी अभिशप्त हैं.....उन पर सुखद आश्चर्य होता है, जो जीवन को नशे की तरह खींचते चले जाते हैं...जीवन भर दौड़ते रहते हैं और कभी थकते नहीं कभी रूकते नहीं और कभी खुद से पूछते भी नहीं कि क्यों दौड़ रहे हैं, क्या पा लेंगे... पा कर क्या होगा? यही वे लोग है जो दुनिया को बदलते है...विकास करते हैं और समाज को बेहतर बनाते हैं....यहाँ तो बड़ी से बड़ी सफलता का नशा भी दो दिन में उतर जाता है और फिर खुलने लगती है अर्थहीनता की पोटली....ये दौड़ क्यों है...कहाँ जाना है....क्यों जाना है और पहुँच कर क्या मिलेगा?....अंतहीन सवाल और कोई जवाब नहीं..। उनसे ईर्ष्या होती है.. जो इस दौड़ से अलग होकर किनारे बैठे हैं दौड़ने वालों निर्विकार भाव से देख रहे है गोया कह रहे हो कि रूक जाओ कोई कहीं नहीं पहुँचेगा.... बेकार है यूँ दौड़ना। ओशो का कहा अक्सर मजबूर करता है रूकने और बैठ जाने के लिए कि--- बैठो! कहीं जाना नहीं है। जो चला वो भटक गया, जो बैठा वह पहुँच गया।
ये उसने कहा है जिसने दुनिया देखी है.....जो भटकने के बाद ही इस सत्य तक पहुँचा है...हम भी शायद पहले भटकेंगे और फिर कहीं बैठ जाएँगें....तब तक तो भटकने के लिए अभिशप्त हैं।

Sunday 14 June 2009

चश्माए महताब से रात के आने का इंतजार

.सोचा तो था कि इस बार कुछ गंभीर राजनीतिक विषय ही रहेगा। चिंतन भी उसी पर चल रहा था और अध्ययन तो और भी ज्यादा गंभीर विषय पर चल रहा है....लेकिन इस बीच मानसून में विलंब की खबर ने बेचैन कर दिया। अब ना तो खेती से कोई लेना-देना है और ना ही जल संकट के पीड़ित हैं....फिर भी इस तरह की बेचैनी का कारण क्या है, ये अभी तक पकड़ में नहीं आया है। बस ये है और पता नहीं कब से?
आषाढ़ दिन दर दिन बढ़ रहा है और आसमान की पेशानी एकदम साफ है....। मौसम विभाग हर दिन अपनी घोषणा बदल रहा है और ज्योतिषी इन दिनों पता नहीं कहाँ जा छुपे हैं। अभी दो दिन पहले बादलों का झुरमुट यूँ ही तफरीह करता दिखा जरूर था....लेकिन रूकने और बरसने का उसका कोई मूड नजर नहीं आ रहा था। जेठ इतना घना हो गया कि उसकी छाया में आषाढ़ पनप ही नहीं पा रहा है.....गर्मी से ज्यादा उमस से बेचैनी है....पढ़ा-सुना है कि जब गर्मी बेचैन करने लगे और सारी उम्मीदें मुरझा जाए तो बस समझें कि बारिश करीब है.....बिल्कुल वैसे ही जैसे जब रात का सबसे अंधियारा पल हो तो समझें कि बस सुबह करीब है...। यहाँ फैज याद आते हैं
गुम हुई जाती है अफ्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्माए महताब से रात
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इस बीच पाखी में छपी कहानी के लिए आ रहे फोन और एसएमएस से मैं अभिभूत हूँ... अखबार में कई बार लिखा छपा लेकिन जिस तरह का रिस्पांस इस कहानी के लिए मिला उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं है...। शुक्रवार रात जब घर पहुँची... तो एक पत्र मेरे नाम आया था.... यह बीकानेर के 70 वर्षिय सज्जन का था। कहानी के संदर्भ में उनकी प्रतिक्रिया से भीगने का क्रम जारी है। चाहे अखबार के पाठक ज्यादा हो, लेकिन जैसी प्रतिक्रिया किसी पत्रिका में प्रकाशित होने पर मिलती है, वैसी और कहीं से नहीं.....। खैर फिलहाल तो चश्माए महताब से रात के आने (आषाढ़ के भीगने...में भीगने) का इंतजार है।

Saturday 6 June 2009

बेटा ! तूने ये सब कहाँ से सीखा?

यूँ इसका पता तो तीन महीने पहले से ही हो गया था लेकिन उस शाम जब दफ्तर में घड़ी की टिकटिक के साथ हम कदमताल कर रहे थे और उसकी सुई को थामे रखने की एक बेकार सी कोशिश कर रहे थे....तभी मोबाइल फोन की रूनझुन ने किसी का मैसेज आने का संदेशा दिया...हरदम कंपनी के ही मैसेज देखने और उन्हें तुरंत डिलीट करने के चक्कर में हमने तुरंत ही फोन लपका और रीड मैसेज के ऑप्शन को आदतन यस कर दिया......मैसेज था....कहानी पढ़ी पसंद आई...कांग्रेट्स...जौकी.....। काम वहीं रूक गया मैसेज फिर से पढ़ा.....फिर-फिर पढ़ा.....। खुद को संयत किया....और लग गए काम पर।
एक और शनिवार की बेकार सी छुट्टी..... मम्मी के घर....अननोन नंबर के कॉल के लिए जसराज जी की सरगम बजी....राँग नंबर कहने की गरज से उठाया तो फोन मुरैना का था....संदेश था कि आपकी कहानी मौत की हमें बहुत पसंद आई और आज हमने इसका पाठ किया....वातावरण निर्माण गजब का था आपको बधाई.....मन में और....व अच्छा काम करने का उत्साह जागा....। तो संदेश तो बस इतना ही है कि जून के पाखी के अंक में मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई और इस पर सबसे अच्छा कमेंट मेरी 70 साला ताई मेरी मानस माँ ने दिया....तीन पन्ने की कहानी को कुछ समझते और कुछ ना समझते हुए भी पुरे धैर्य से पढ़ा फिर बहुत प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा-- बेटा ! तूने ये सब कहाँ से सीखा?
खुद के भटकाव को दिशा मिलने की खुशी मात्र है जिसे मैं आप सबसे बाँटना चाह रही हूँ.....रूटिन से विचार और विचार से सृजन की ओर बढ़े पहले कदम के लिए दुआओं की आस के साथ.....।

Thursday 4 June 2009

मीडिया की भाषा: औदात्य बनाम डगाल

तेज, तीखी गर्मी और झुलसाने.....जलाने वाली गर्मी के बाद भी नम, नाजुक और खुबसूरत फूल जो अहसास जगाते है वह है प्रकृति की उदारता....उसकी उदात्तता का.....बस अपने पेज पर उस फोटो का शीर्षक दे दिया प्रकृति का औदात्य....अगले दिन जब दफ्तर पहुँच कर अपना अखबार देखा तो शीर्षक बदल दिया गया था.....जैसा हमेशा अच्छे शीर्षकों के साथ होता आया है.....साथ ही शाम को शो-कॉज नोटिस की तरह कहा गया कि औदात्य शब्द को पाँच शब्दकोषों में देखा.... कहीं भी वह शब्द नजर नहीं आया आपके पास कहीं हो तो कृपया दिखाएँ.....। लगा पूरा पढ़ा-लिखा दाँव पर लग गया.....यूँ भाषा के मामले में ज्यादा रूढ़ हूँ। कोशिश रहती है कि जहाँ तक हो सके अंग्रेजी के शब्दों से परहेज करूँ....खासतौर पर जब मामला खबरों का हो.....इसलिए यह तय था कि औदात्य कहीं पढ़ा हुआ शब्द है....खैर आखिरकार वह शब्द अपने विस्तृत अर्थ के साथ मिल गया।
उसी दिन एक हार्ड न्यूज में एक शब्द का प्रयोग हुआ डगाल....इससे कुछ दिन पहले हमारे माली ने जो यूपी का है और नितांत खड़ी भाषा बोलता है यह पूछ कर शर्मिंदा कर दिया था कि भाभीजी आपके अखबार में किस तरह की भाषा लिखी जाती है ट्रक के टल्ले से एक की मौत....? ये टल्ले का क्या मतलब होता है? सो उस दिन हम उससे बचते रहे....अब पता नहीं उसने वह खबर पढ़ी नहीं या फिर यह मान लिया हो कि इस अखबार में तो इसी तरह की भाषा इस्तेमाल होती है.... हम शर्मिंदगी से बच गए। इस मामले में जब वरिष्ठों से चर्चा की तो जवाब मिला कि बड़े-बड़े संपादक अपने संपादकीय में बोली के शब्दों का उपयोग करते हैं। सवाल तो उठा कि क्या न्यूज और व्यूवज अलग-अलग नहीं है? खैर आजकल ज्यादा बहस करना बंद कर दिया है इसलिए चुप हो गए.....लेकिन चुप हो जाने से यदि सवाल उठना ही बंद हो जाते तो दुनिया वहीं की वहीं रहती आगे नहीं बढ़ पाती...।
सवाल तो उठा कि आखिर मीडिया की भाषा कैसी हो?
इस देश में जबकि हर 10 किमी पर बोली बदल जाती हो..... वहाँ तो यह सवाल उठना बहुत जरूरी और लाजिमी है। नहीं उठे तो हो आश्चर्य......। फिर जब बोली बदलती है तो तय है कि भाषा में भी देशज शब्दों का प्रवेश होगा। तो फिर किसी ऐसी भाषा की जरूरत और बढ़ जाती है जिसका सम्प्रेषण असीम हो..... क्योंकि बोली की सम्प्रेषणीयता तो ससीम होती है....( अब बवाल तो ससीम शब्द पर भी उठ सकता है, क्योंकि ये बहुत प्रचलित नहीं है, लेकिन यह अखबार नहीं है, इसलिए कोई डर नहीं है)। यह सही है कि चूँकि अखबार का विस्तार साहित्य से ज्यादा है तो इसकी भाषा सरल और आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाली ही हो....लेकिन इसके साथ क्या इसका स्वरूप मानक भाषा का नहीं होना चाहिए?
अब डगाल और टल्ला टाइप शब्द मप्र के मालवा के पठार क्षेत्र की बोली के शब्द है जो इस भौगोलिक भाग के आसपास के हिस्सों की बोली से प्रभावित है....लेकिन इसकी ग्राह्यता मालवी बोली के दो ही क्षेत्रों तक सीमित है....शेष जगहों के लिए अनजान....। तो फिर क्या अखबार और टीवी की भाषा मानक हिंदी नहीं होनी चाहिए?
कहने को तो और भी बहुत कुछ है, लेकिन हम तो समय के प्रति ससीम हैं।