Wednesday 29 April 2009

जब तवक्को ही उठ गई गालिब

मतदान के लिए फिल्म स्टार से लेकर स्वयं सेवी संगठन तक सभी अभियान चला रहे हैं....इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ कहा जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र की शुद्धता के लिए यह पर्याप्त है? 62 साला लोकतंत्र में ये दौर राजनीतिक उदासिनता का दौर है...इसमें एक आम आदमी राजनीति पर चर्चा तो करेगा...लेकिन उसकी रूचि यहीं तक रहेगी। अपने आस-पास ही कई लोग ऐसे हैं, जो यह कहते है कि वोट देने से क्या बदल जाएगा? आप उन्हें नहीं समझा सकते कि क्या बदलेगा? स्वतंत्रता के 62 साल यूँ राष्ट्र राज्य की दृष्टि से ज्यादा लंबा अरसा नहीं होता है, फिर भी इस छोटे से दौर ने हमसे हमारी राजनीतिक जागरूकता छीन ली, ऐसा क्यों हुआ क्या इस पर विचार करने का समय नहीं आ गया है?
बहुत पहले जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सार्थक चर्चाएँ हुआ करती थी, उस दौर में हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक नामवरसिंह से पूछा गया कि क्या हमारा लोकतंत्र इसलिए परिपक्व नहीं है कि हमारे यहाँ अशिक्षा ज्यादा है? तब उन्होंने कहा था कि---दरअसल हमारा लोकतंत्र तो जिंदा ही उन्हीं के दम पर है, पढ़ा-लिखा, शहरी तबका तो लोकतंत्र से कोसों दूर है....आज भी उस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है....और आए भी क्यों? इन बीते सालों में सकारात्मक बदलाव क्या आए हैं? उल्टे राजनीति का स्तर लगातार गिरता ही जा रहा है। उस पर राजनीति में अपराधियों के आ जाने से बची-खुची उम्मीद भी खत्म हो गई। हम वोट दें, लेकिन किसको? सब बुरों में से कम बुरे को? हमारी राजनीति विकल्पहीनता के दौर में पहुँच गई है....अब मताधिकार को कर्तव्य की तरह निभाना है, क्योंकि कोई उम्मीदवार ऐसा दिखाई नहीं देता, जिससे कोई भी उम्मीद हो.....बकौल गालिब-----
जब तवक्को
(उम्मीद) ही उठ गई गालिब, क्यूँ किसी का गिला करे कोई?
फिर भी राजनीति के हिमालय से गंगा निकालने के प्रयासों पर विराम ना लगे, इसलिए वोट दें.....।

Sunday 26 April 2009

जैदी को सलाह

हमारे देश में मौलिकता का अकाल है....संविधान देखें तो उधार का थैला है....राजनीतिक व्यवस्था....अर्थव्यवस्था...शिक्षा से लेकर सिनेमा.....साहित्य....संगीत यहाँ तक कि प्रेम और घृणा की अभिव्यक्ति जैसे नितांत निजी मामले तक हमारे अपने नहीं है....ये हमारी पुरानी आदत है....खासतौर पर वैचारिक और रचनात्मक दुनिया में तो....हम इसे भेड़चाल कहते हैं। यह बीमारी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से प्रचलित है। जैसे साहित्य में प्रभाव.....और सिनेमा, संगीत में प्रेरणा....हाँ मामला जूते फेंकने से जुड़ा हुआ है। ये हमारे वैचारिक, रचनात्मक और क्रियात्मक दिवालिएपन की पराकाष्ठा ही कही जाएगी कि हमारे पास विरोध करने तक का अपना तरीका नहीं है....हम विरोध करने के तरीके की भी नकल करते है...इराक में जैदी ने बुश पर जूता क्या फेंका.....हमारे यहाँ इसकी होड़ शुरू हो गई....यूँ हमारे देश में इसका पहला प्रयोग जरनैलसिंह ने किया था तो यह यहाँ उसका मौलिक प्रयोग है....फिर तो कारवां चल निकला....देश में हर दिन कहीं न कहीं से जूता चलने की खबर आती ही रहती है...ताजा जूता प्रधानमंत्री और पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के नाम चले....इस मामले में प्रधानमंत्री थोड़ा पिछड़ गए....आडवाणी जी को तो पूरा जोड़ा ही मिला, लेकिन बेचारे मनमोहनसिंह को एक से ही संतोष करना पड़ रहा है। इस मामले में नवीन जिंदल की तो उड़की ही लग गई......वह तो राजनीति की युवा ब्रिगेड का नितांत लो-प्रोफाइल नाम है फिर भी साहब किस्मत देखिए कि जूता प्रतियोगिता में उनका भी नाम आ गया....खैर साहब जो भी हो हमें तो दिवालिएपन के लिए ईनाम मिलना चाहिए.....ऐसा वैसा नहीं, पहला....और पता नहीं जेल में जैदी कुछ कर रहा है या नहीं, लेकिन वहाँ उसे समय का सदुपयोग करते हुए, जूता फेंकने की कला पर एक किताब लिख देनी चाहिए और कहीं नहीं तो हिंदुस्तान में तो उसकी खूब बिक्री होगी....और हाँ अमेरिका में कोई इसका पेटेंट कराने की सोचे इससे पहले ही जैदी को पहली फुर्सत में जूता फेंकू कला का पेटेंट करा लेना चाहिए, बुश पर जूता फेंकने के बाद नौकरी से तो उसे निश्चित ही निकाल दिया होगा....तो इस पेटेंट से उसे खूब आमदनी होगी ...कम से कम हमारे देश से तो निश्चित ही....अब तक तो उसे खासा नुकसान भी हो चुका है.....खैर अब भी जाग जाए तो सवेरा दूर नहीं है.....आमीन....

Friday 17 April 2009

उम्मीद की रोशनी

भारतीय राजनीति बहुत बुरे दौर में प्रवेश कर चुकी है। यहाँ बुरे दौर से गुजर रही है का उपयोग नहीं किया गया है, क्योंकि गुजरना शब्द एक उम्मीद पैदा करता है कि जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा...लेकिन इन हालात में क्या हम ये सपना भी देख सकते हैं?
लगातार खराब होते जा रहे राजनीतिक हालात में यह कहा जाना ही ज्यादा ठीक है कि भारतीय राजनीति बहुत बुरे दौर में प्रवेश कर चुकी है....। राजनीति में मूल्यों का लोप स्वतंत्रता के बाद से शुरू हुआ तो आज तक उसका नीचे जाना नहीं रूका....पता नहीं ये और कितना नीचे जाएगा.....? भारतीय राजनीति में पैसे और ताकत की भूमिका लगातार बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही हमारी विविधता, जिसके बारे में स्वतंत्रता के बाद के समाजशास्त्रियों ने मान लिया था कि लोकतंत्र के विकसित होते ही इसका प्रभाव कम होने लगेगा...लगातार बढ़ती ही जा रही है....राजनीति में हमारे यहाँ धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा और इसी तरह की अन्य कई तरह की विविधताएँ अब और ज्यादा मुखर हो गई है....इन सब ने हमारी व्यवस्था में दबाव और हित समूह का रूप ले लिया है। ऐसे में ये और ज्यादा ताकतवर हुए और लोकतंत्र की बुराई बनकर उभरे है और इसने लोकतंत्र की भावना को नुकसान ही पहुँचाया है...इससे धीरे-धीरे आम आदमी और पढ़ा-लिखा वर्ग राजनीति से दूरी बनाने लगा...और उस शून्य को भरने के लिए अपराधी किस्म के लोगों का जमघट होने लगा। सब तरह से नाउम्मीदी के इस दौर में मीरा सान्याल और मल्लिका साराभाई का राजनीति में प्रवेश उम्मीद की हल्की-सी रेखा के तौर पर दिखाई देने लगी है....। मल्लिका ने तो आडवाणी जैसे हाई प्रोफाईल नेता के खिलाफ चुनाव लड़ने का साहस दिखाया....जबकि हश्र वे भी जानती होंगी....फिर भी देश में राजनीति के प्रति दिखाई दे रही उदासीनता....हताशा और उपेक्षा के दौर में मीरा-मल्लिका की पहल की तारीफ की जानी चाहिए....और उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
ये विषयांतर है। हाल ही में मध्यकाल के हिंदी कवि ( ये खड़ी बोली के विकास के प्रारंभिक दौर के कवि रहे हैं) अमीर खुसरो की खुबसूरत लाईनें पढ़ी....आप भी मजा लें
खुसरो दरिया प्रेम का
सो उलटी वाकी चाल
जो उबरा सो डूब गया
जो डूबा सो पार
भाव साम्य आमंत्रित है.....याद रखना भी प्रयोजन है....।

Sunday 12 April 2009

कलम पर भारी जैनी का जूता…..

उस प्रेस कांफ्रेंस में दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह ने गृहमंत्री पर जूता क्या फेंका देशभर के पत्रकार और कथित सभ्यतावादी लगे आलोचना करने....फिर टीवी चैनलों को तो एक बड़ा स्कूप मिल गया... लंबे समय से उन्हें खबरों की तलाश थी....जैनी ने तो चिदंबरम की तरफ एक ही जूता फेंका लेकिन टीवी पर तो इतने जूते पड़ते दिखाए गए कि बस....इसे पत्रकार के पेशे और उसके संयम की दुहाईयाँ भी दी जाने लगी...आखिरकार जरनैल सिंह मात्र एक पत्रकार ही तो है....इंसान नहीं...? तो उसे तो एक पैटर्न के अनुसार व्यवहार करना चाहिए ना.....! यह हंगामा उस समय नहीं हुआ जब जैदी ने बुश पर जूता फेंका था....शायद उसे दुसरे देश का मामला मान लिया गया था....लेकिन आज ये मामला हमारे देश का है।
इसे व्यवहार के तयशुदा मापदंडों के आधार पर तौलने की बजाय जैनी की मजबूरी के तौर पर देखा जाना चाहिए...एक पूरी की पूरी कौम की पीड़ा से उपजी बेबसी....और उस बेबसी का ये सात्विक विरोध....सोचिए जूते की जगह बंदूक भी हो सकती थी.....एक तरफ जहाँ जैदी का जूता एक देश की पीड़ा का प्रतीक है तो जैनी का जूता एक पूरी कौम की बेबसी का....जिन्हें एक पूरी कौम अपराधी मानती हो वे गवाहों के अभाव में निर्दोष सिद्ध हो जाए और पार्टी उन्हें टिकट भी दे दे तो फिर वह पीड़ित कौम क्या करे? जैनी के गुस्से को मजबूर गुस्से की सात्विक अभिव्यक्ति माना जाना चाहिए....औऱ फिर जो काम देश भर में हुए विरोध प्रदर्शन नहीं कर सका उसे एक जूते ने कर दिखाया.....अब हुआ ना जूता कलम से ज्यादा ताकतवर....जो काम जैनी के जूते ने किया क्या वह काम उसकी कलम कर सकी.....? हाँ इस कैटेगरी में राजबल और नवीन जिंदल मामले को नहीं लिया जा सकता है....

Thursday 9 April 2009

क्या मंदी के माध्यम से अमेरिका देगा तीसरे विश्ययुद्ध की सौगात!

पिछले लगभग सवा साल से मंदी का भूत पुरी दुनिया की अर्थव्यस्था पर छाया हुआ है. वारेन बफे ने इसे १९३० की मंदी से भी बड़ा आर्थिक संकट बताया है. अकेले अमेरिका में जनवरी २००८ से सितम्बर तक हर माह औसतन ८४ हजार नौकरियां ख़त्म हुई. यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वहां सबसे ज्यादा है. २० मार्च को अमेरिकी सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में बेरोजगारी का प्रतिशत ८.१ हो गया है जो २५ सालों में सबसे ज्यादा है. फरवरी २००९ में ही ६ लाख ५१ हजार लोगों को नौकरियों से हटाया गया ओर वहां बेरोजगारों की कुल संख्या १२.५ मिलियन तक पहुँच गई है.
उधर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के आशंका व्यक्त की है कि वैश्विक बेरोजगारी का आंकडा २००७ की तुलना में ३० मिलियन हो जाएगा और यदि ये सिलसिला नहीं रुका तो यह बढ़ कर ५० मिलियन तक भी जा सकता है. सिर्फ़ अकेले अमेरिका में नवम्बर २००८ से लेकर फरवरी तक के ४ महीनों में २.५ मिलियन लोगों के नौकरियां छिन गई और ये बेरोजगारी ओद्योगिक उत्पादन के ढह जाने से हुआ है. और यह ज्यादातर देशों में हर साल १० प्रतिशत की दर से गिर रहा है.
आम आदमी इस मंदी को नौकरियों के छिन जाने और वेतन कटौती के सन्दर्भ में ही समझ पा रहा है, लेकिन इसके परिणाम और भी भयावह हो सकते है. इस सिलसिले में लन्दन से प्रकाशित पत्रिका इकोनोमिस्ट ने चेतावनी दी थी कि मंदी की वजह से बहुत सारे विकासशील देशों में सामाजिक अशांति की स्थिति बन सकती है, कुछ इससे मिलती-जुलती आशंका अमेरिकी गुप्तचर विभाग के नए प्रमुख डेनिस ब्लयेर ने भी व्यक्त की है. उन्होंने कहा है कि वैश्विक मंदी की वजह से होने वाली राजनीतिक हलचल से देश की सुरक्षा को खतरा बढ़ रहा है, उनकी चिंता आतंकवाद की है. लेकिन मार्च के अंतिम सप्ताह में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निदेशक डोमिनिक स्ट्रास कोहेन ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की बैठक से पहले जिनेवा में यह कह कर चौंका दिया कि-- दुनिया की आर्थिक स्थिति बहुत भयावह होती जा रही है और यदि इसे नहीं संभाला गया तो सामाजिक क्रांति और युद्ध भी भड़क सकता है. कोहेन ने कहा की इस संकट ने बहुत सारे देशों में नाटकीय रूप से बेरोजगारी बढाई है. यह सामाजिक शान्ति के साथ लोकतंत्र के लिए भी खतरा है और हो सकता है कि इसका अंत युद्ध में हो. इसी तरह जर्मनी के राष्ट्रपति और आई ऍम ऍफ़ के पूर्व प्रमुख होर्स्ट कोहलेर ने भी लगभग उसी समय स्ट्रास का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि आने वाले कुछ महीने बहुत मुश्किलों भरे होंगें. कहा जा सकता है कि ये तो बस शुरुआत है, जैसे-जैसे इस समस्या को सुलझाने के लिए प्रयास किए जा रहें है, वैसे-वैसे समस्या आर्थिक से आगे बढ़कर राजनीतिक और सामाजिक रूप लेती जा रहीं है, अमेरिका जैसे देशों की संरक्षणवादी नीतियों से फ्रांस इतना नाराज था की उसने मीटिंग से पहले जी-२० को छोड़ने तक की धमकी तक दे डाली थी. उधर मीटिंग से पहले लन्दन, फ्रांस और जर्मनी में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए... तरलता और संरक्षणवाद के बीच के संघर्ष ने भी स्थितियां बिगाड़ कर रख दी है..... इस बीच हंगरी के प्रधानमंत्री फेरेनक जय्रुस्कानी ने चेतावनी दी है कि आर्थिक संकट पूर्वी यूरोप को योरोपियन यूनियन से अलग कर एक लोह आवरण के रचना कर सकता है। लंदन में हुई जी-20 की बैठक के परिणाम यूँ तो बहुत उत्साहजनक बताए जा रहे हैं, लेकिन यदि हम इतिहास नहीं भूले हो तो शक बना रहता है....हमें भूलना भी नहीं चाहिए कि आईएमएफ सहित सभी तरह की अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हमेशा से अमेरिका की पिछलग्गू रही है और आज भी इनसे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती है.....और फिर बराक ओबामा का बाय अमेरिकन....उन कंपनियों को सब्सिडी देने की घोषणा करना जिनमें अमेरिकीयों को रोजगार दिया जाएगा....फिर अमेरिका की प्रतिष्ठित कंपनी एआईजी को भी भूला नहीं जा सकता जिसने बैल आउट के लिए मिले पैसे में से सवा आठ सौ करोड़ रु. अपने अधिकारियों को बोनस के रूप में बाँट दिए....क्या ऐसे में विकासशील देशों के पास विश्वास करने के लिए क्या कुछ बचता है....जब थोड़े से संकट में अमेरिका बचाव की मुद्रा में आ खड़ा हुआ है तो क्या उसकी नीयत पर शक किया जाना आश्चर्य पैदा करता है
एआईजी की घटना ने एक बार फिर यह सिद्ध किया कि दरअसल सरकारों की सारी कवायदें पूँजीपतियों को बचाने की है, उन लोगों की दुर्दशा पर ध्यान नहीं है, जिनकी नौकरियाँ जा रही है....और यदि उनके हाथों को काम दिया जाए तो शायद अर्थव्यवस्थाओं को उबारने में मदद मिले......और युद्ध तथा सामाजिक अशांति का खतरा भी कम हो।

Wednesday 8 April 2009

नमस्ते.....

आखिरकार रोमन से देवनागरी पाने की यातना से मुक्ति मिल ही गई। यह सब कुछ संभव हुआ नवभारत टाईम्स में छपे अनुराग अन्वेषी के लेख से...। अभी इंस्क्रिप्ट की-बोर्ड पर गति आना बाकी है, फिर ब्लॉग लिखना ज्यादा नियमित हो पाएगा ऐसी खुद से उम्मीद है। एक राह पकड़ ली है मधुशाला मिल ही जाएगी। यदि आपमें से कोई भी मेरी तरह की समस्या से दो-चार हो रहा है तो मुझे मेल करें। यूँ कम्प्यूटर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है फिर भी अन्वेषी का लेख मेल कर सकती हूँ। अन्वेषी जी जहाँ कहीं भी हो उन्हें धन्यवाद पहुँचे.....शेष शुभ