Saturday 27 December 2008

बुश पर फेंके जूते के बहाने

वो पुरसिशे ग़म को आए है कुछ कह न सकूँ, चुप रह न सकूँ खामोश रहूँ तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है
इराक के पत्रकार जैदी के सामने ऐसी कोई दुविधा नहीं है।इराकी पत्रकार ने बुश पर जूतें फ़ेंक कर किसी पत्रकार के गुस्से का इजहार नहीं किया है..... उसने सबसे पहले इराकी समाज का और फिर पुरी दुनिया के गुस्से को आकार दिया है.... सभ्यतावादी तो नैतिकता का मर्सिया पढ़ रहें है.... और पत्रकारिता के मूल्यों की बात की जा रही है......लेकिन जरा ठहरिये ये किसी पत्रकार की अभिव्यक्ति नहीं है कहा तो ये जा रहा है कि एक पत्रकार का हथियार कलम है उसे जूतों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए..... लेकिन जरा सोचिये दुनिया भर में बुश और अमेरिका के खिलाफ कलम चलाई जा रही है क्या बुश बदले या अमेरिकन नीतियों में बदलाव आया? तो फिर अपने गुस्से का जैदी क्या करें? वही जो उन्होंने किया है..... ये दुनिया के क्रोध की सबसे सात्विक अभिव्यक्ति है इससे बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता है। लगभग यही कालखंड है जब केरल में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने अपने गुस्से का इजहार किया इसे क्या कहा जाय? एक ही दौर में अलग-अलग समाजों के लोगों द्वारा अलग-अलग तरह से गुस्से का इजहार.... दुनिया में बदलाव की बयार नजर आने लगी है सामूहिक गुस्से को व्यक्त करने के लिए किसी संगठन की जरुरत नहीं है, कोई एक भी उसका संवाहक बन सकता है दरअसल हो ये रहा है कि राजनीति और समाज एक दुसरे कि तरफ़ पीठ कर खड़ी है, दोनों के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है....समाज व्यवस्था की उप व्यवस्था राजनीति पर अब लोगों को भरोसा नहीं रहा.... इसके प्रति लोगों में एक गहरी हताशा..... और गहरा अविश्वास है यदि समय रहते इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो परिणाम और गंभीर हो सकते है..... हम देख ही रहें है कि राजनीति से किस तरह युवाओं का मोहभंग हो चुका है..... जैसा कि किसी विद्वान् को पढ़ा था कि राजनीति बदमाशों की अन्तिम शरण स्थली है..... तो अब इसमे अपराधियों का ही दखल है.... और यदि यही चलता रहा तो फिर भविष्य का तो भगवान भी मालिक नहीं है..... अब आम आदमी को ही आगे आना होगा..... तभी व्यवस्था में सुधार की कोई उम्मीद की जा सकती है .... रही बात जैदी की तो वे तो रातोंरात स्टार बन गए फिदायीन होकर आतंकवादी जो नहीं कर सकें वो जैदी ने कर दिखाया ..... अब ये जुगाली आप कीजिये कि वो नाम कमाने की तरकीब थी या सचमुच का गुस्सा...?

3 comments:

  1. आप समाजशास्त्री है। हम सब समाज के अंग है।पत्रकार हो या राज नेता समाज से अलग नही हो सकता।किसी ने किसी रूप में वह हमें प्रभावित करता ही है।
    अमेरिका ने हमला करने से पूर्व कहा था कि इराक में आणविक एवं संघारक शस्त्र हैं। युद्ध समाप्त हुए कई साल बीत गए। इराक पर अमेरिकी कब्जा बरकरार है आज तक भी कोई परमाणु यां संघारक शस्त्र वहां नही मिला। सदाम को फांसी लगे युग बीत गया किंतु कुछ नही हुआ। अमेरिका आज भी वहां जमा है। हिंसा एवं अमेरिकी सेवा का दमन वहां जारी है। एेसे मे हर इराकी में गुस्सा विद्यमान होना स्वभावकि है।
    इराकी पत्रकार का आचरण हालाकि पत्रकारिता के विपरीत था किंतु उसके आचरण से इराक के आम जन, युवा में अमेरिका के प्रति भारी गुस्से एवं घृणा का पता चलता है।

    आपसे एक अनुरोध.. कृपया सैटिग में जाकर वर्ड वैरिफिकेशन हटा दें। यह टिप्पणी करने में परेशानी पैदा करता है।

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  2. ...समाज व्यवस्था की उप व्यवस्था राजनीति पर अब लोगों को भरोसा नहीं रहा.... इसके प्रति लोगों में एक गहरी हताशा..... और गहरा अविश्वास है यदि समय रहते इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो परिणाम और गंभीर हो सकते है....

    sahi likha hai aapney-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  3. पत्रकार भी किसी न किसी देश का नागरिक होता है। और हर नागरिक अपने देश के ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना चाहता है बस जरूरत है समय की। इच्छाओं को नकारात्क तरीके से नहीं दबाया जाना चाहिये।

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