Saturday 22 November 2008

लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ...


2 comments:

  1. आपने कुछ कहने का चलो कुछ तो हौसला दिखाया .इसमें जोखिम ज़रूर है लेकिन इंक़लाब ऐसे ही खामोशी से दस्तक देता है .उसकी दस्तक पर कोई जाग जाए तो अच्छा है वरना ऐसे नागरिकों पर वक्त अपनी पारदर्शी लानतें नाजिल करता है .बहरहाल , लोग जागना चाहते हैं लेकिन सियासत की मंद मंद ध्वनियाँ उन्हें हथोडेनुमा थपकियाँ देकर सुला देना चाहती है .ये शुरूआत नहीं है और अंत भी नहीं है .सिर्फ़ एक भौर का एहसास है जो हमें जागने के लिए आहूत कर रहा है .जागना -जगाना ज़िंदगी की अलामत है ,रिवायत है और आपने अगर अलमबरदार बनकर अलम उठाया है तो फिर तमाम मुश्किलात के निभाना भी है .

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  2. अच्छा लगा इस माध्यम को आपने भी अपनाया। दहशतगर्दों के सामने हम घुटने टेक लें उससे अच्छा है कि खामोश जंग शुरू कर दें। कलम ही paina aujaar है इसे ज़ंग मैं उसका bakhubi istemal करें।
    kalimuddin sheikh

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