Friday 28 November 2008

एक बेबस राष्ट्र के पीड़ित नागरिक

एक सॉफ्ट स्टेट होना किसे पसंद होगा? लेकिन बदकिस्मती से भारत वही है. कम से कम मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद तो हम इससे इंकार नहीं कर सकते है. साहस का सम्बन्ध क्षमता से ज्यादा इच्छा से है. और हमने बार-बार ये साबित किया है कि हममे इच्छाशक्ति का अभाव है. चंद लोग एक पुरे देश को दहशतजदा कर सकते है और हमारी सरकारें सांत्वना के कुछ शब्द कह कर शांत हो जाती है. हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी से कितने निर्दोष नागरिक, पुलिस और सेना के जवानों की जान को खतरा होता है कभी इस पर विचार किया गया? कितनी बार और कितने साल तक देश में यही सब कुछ होता रहेगा और हम सहते रहेंगे? यदि खबरों को सही माने तो मुंबई में ४० आतंकवादी घुसे हैं इस लिहाज से उन ४० दुस्साहसियों ने एक पुरे देश.....एक पुरी व्यवस्था को चुनोती दी है.....हम इससे इंकार नहीं कर सकते है कि आतंकवादियो को मदद स्थानीय लोग करते है और उन्हें डिटेक्ट करने के लिए पुलिस को ज्यादा स्वतंत्रता देने की जरुरत है एक ऐसे समय में जब देश पर संकट है राजनेता अपनी राजनीति से बाज आए. आडवानी अपनी और मोदी अपनी रोटी निर्दोष नागरिकों, पुलिस और सेना की लाश पर सेंक रहे हैं. दिल्ली में भाजपा इस घटना को विधानसभा चुनाव के लिए भुनाते हुए अखबार ने विज्ञापन देती है, अखबार विज्ञापन छापते हैं और टेलिविज़न चैनेल उसे दिखाते है. सब गैर जिम्मेदार..... आखिर हम कब जिम्मेदार व्यवहार करेंगे.... लोग फंसे है....मर रहे हैं लेकिन किसी को कोई लेना देना है. ऐसे मौके पर जब देश को कम से कम एकजुट होने की जरुरत है सबकी खिचडी अलग पक रही हैं. मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है.इस घटना से कई सवाल उठते है. क्या हमारी जानों की सरकारों की नजर में कोई कीमत नहीं है? क्या एक सॉफ्ट स्टेट के सड़े हुए तंत्र का इलाज साध्वी प्रज्ञा और महंत पांडे के ही पास है?